Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तलाशोकवार्तिके
प्रमाणतस्तदुभयनयपरिच्छिचिरूपसमुदायस्वभाव इत्यादयो जीवादिष्वप्यागमाविरोधानिर्देशादीनामुदाहरणमवगंतव्यम् ।
तथा प्रमाणोंसे यह जीव उन निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंके द्वारा हुई ज्ञप्तिस्वरूपके विषयभूत समुदायोंका स्वभाव है यह जीवका निर्देश हुआ। जीव अपने ज्ञान, धन, आदिका स्वामी है । इत्यादि निर्देश आदिक छहोंका जीव आदिक तत्त्वोंमें आगमके अविरोधसे उदाहरण समझ लेने चाहिये। किसी वाक्य द्वारा वस्तुके पूर्ण अंशोंपर लक्ष्य जानेसे हीवे निर्देश आदिक प्रमाणके विषय बन जाते हैं और और नयवाक्य ही प्रमाण वाक्यपनेको धारण कर लेते हैं। इसी प्रकार वस्तुके एक अंशपर लक्ष्य जानेसे प्रमाणवाक्य ही नय वाक्य हो जाते हैं। क्वचित् प्रमाण वाक्य और नयवाक्योंका भेद भी माना है इस प्रकार प्रमाण, नयस्वरूप निर्देश आदिक और उनके विषयभूत निर्देश्य आदिकों करके जीव आदिक पदार्थ जाने जाते हैं । विषयी और विषयके अतिरिक्त कोई पदार्थ जगत्में नहीं है । स्वामीजीने ज्ञप्तिके साधक उपायोंका जो क्रम दिखलाया है, उससे अज्ञ प्राणी भी झट प्रबोधको प्राप्त कर लेता है । अतीन्द्रियदर्शी आचार्य असंख्य स्थलोंपर अधिगमके सफल उपायोंको निर्णय कर शिष्यों के प्रति निर्दोष लघु उपायोंसे महान् कार्यकी सिद्धि होनेका उपदेश देते हैं।
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सातवें सूत्रका सारांश : इस सूत्रके स्थूल प्रकरणोंकी सूची इस प्रकार है.कि संक्षेपसे जीव आदिकोंका अधिगम तो प्रमाण और नयों करके होता है, किन्तु मध्यमरुचिवाले शिष्यों के लिये निर्देश आदि सूत्रका अवतार हुआ है । उमास्वामी महाराज शिष्योंके अनुरोधसे यथायोग्य सूत्रोंको कहते हैं । वस्तुके जानने में आकांक्षणीय निर्देश आदिकोंका कथन कर उनको शबखरूप और ज्ञानस्वरूप बतलाया गया है। मुख्यरूपसे श्रुतज्ञानके भेद निर्देश आदिक हैं। अतः प्रमाण, नय, स्वरूप निर्देश आदिकों करके प्रमातामें स्थित अधिगम किया जाता है और ज्ञेय विषयस्वरूप निर्देश ( निर्देश्य ) आदिकों करके कर्मस्थ अधिगम किया जाता है । कथंचित् भेदाभेद पक्षमें कोई विरोध नहीं होता है। नयोंकी विवक्षासे विशेषण विशेष्यपना या कर्मकरणपना बन जाता है । प्रमाणदृष्टिसे तो अनेक धर्मात्मक पूरी वस्तु कही जाती है। तहां प्रथम ही पदार्थीको निस्स्वरूप और अवक्तव्य माननेवाले बौद्धोंके मतका निरास कर पदार्थोके निर्देश्य स्वरूपकी सिद्धि की है। बौद्धोंके माने गये निरंशस्वलक्षणकी सर्वथा प्रतीति नहीं होती है। यहां शद्वके द्वारा भाव अभावके निरूपणका शास्त्रार्थ कर अनेकान्तरूपसे वाच्यवाचक भावको भली भांति पुष्ट किया है शब्द व्यवहारकी मित्ति कोरी वासना नहीं हैं। किन्तु वस्तुस्थिति है। आगे चलकर पदार्थोके निस्स्वभावपनेका निरास कर धोके निरूपण द्वारा वस्तुका निर्देश करना जानने योग्य बताया है । बौद्ध लोग जब