Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामाणः
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अविद्या नहीं हो सकती है। सम्पूर्ण ही प्रतीतियां अपने आप प्रतिभासमानस्वरूप होती हैं जो स्वयं अपना सूर्यके समान प्रकाश कर रहा है, वह भला स्वभावोंसे रहित नीरूप कैसे हो सकेगा ? स्वयं प्रकाश रहा पदार्थ तो बहुत बढिया ढंगसे स्वभाववान् होता हुआ वस्तुभूत है।
ग्राह्यरूपाभावान्नीरूपा मिथ्या प्रतीतिरिति चेत्तर्हि ग्राह्यरूपसहिता सम्यक् प्रतीतिरिति तद्विशेषसिद्धेः । सम्यक्प्रतीतिरपि ग्राह्यरूपरहितेति चेत् कथमिदानी सत्येतरप्रतीतिव्यवस्था ? यथैव हि सन्मात्रप्रतीतिः स्वरूप एवाव्यभिचारात्सत्या तथा भेदप्रतीतिरपि । यथा वा सा ग्राह्याभावादसत्या तथा सन्मात्रमतीतिरपीति न विद्याविद्याविभागं बुध्यामहेन्यत्र कथंचिद्भेदवादात् । ततो न सन्मानं तत्त्वतः सिद्धं साधनाघटना. दिति विधानस्यैव नानार्थाश्रयस्य सिद्धेस्तदधिगम्यमेव निर्देशादिवत् ।
फिर भी सत्ताद्वैतवादी यदि यों कहें कि ज्ञानसे ग्रहण करने योग्य रूपोंके न होनेसे मिथ्याप्रतीतियोंको हम नीरूप [ स्वभावरहित, तुच्छ, अवस्तु ] कहते हैं, तब तो इस प्रकार कहनेपर आपके कहनेसे ही आगया कि ग्रहण करने योग्य स्वरूपोंसे सहित जो प्रतीति है, वह समीचीन प्रतीति है । इस प्रकार उन प्रतीतियोंकी विशेषता ( भेद ) सिद्ध हुई । फिर अद्वैतवादी यदि यों कहें कि समीचीन प्रतीतियोंको भी हम ग्रहण करने योग्य स्वरूपोंसे रहित मानते हैं । ऐसा कहने पर तो हम जैन पूछेगे कि आपके यहां अब सत्य और असत्य प्रतीतियोंकी व्यवस्था कैसे होगी ! बताओ ! जब कि दोनों ही प्रतीतियां अपने ग्राह्य विषयोंको नहीं जानती हैं, तो सामान्य सत् को जाननेवाली और विशेष सत्को जाननेवाली दोनों ही प्रतीतियां सच्ची या दोनों ही झूठी बन बैठेगी । जिस प्रकार ही केवल शुद्धसत्ताको विषय करनेवाली प्रतीति सत्ता विधिस्वरूपमें ही व्यभिचाररहित होनेके कारण सत्य मान ली गयी है । तिसी प्रकार घट, पट, आदिकको विषय करनेवाली भेदप्रतीति. भी अपने विशेषस्वरूपमें ही अव्यभिचार होनेसे सच्ची बन जाओ और जैसे ग्राह्यविषय न होनेसे वह भेदप्रतीति असत्य मानी जाती है तिसी प्रकार केवल सत्ताको ही जाननेवाली प्रतीति भी बहिर्भूत ग्राह्यपदार्थ न होनेके कारण असत्य हो जायगी। आपने अभी ही समीचीनप्रतीतिका भी ग्राह्य ब्रह्म पदार्थ नहीं माना है । इस प्रकार कथंचित् भेदवादसे अतिरिक्त विद्या और अविद्याके विभागको हम कुछ नहीं समझते हैं । अर्थात्-बौद्धोंके सर्वथा विशेष (भेद) वाद और आत्माद्वैतवादियोंके सर्वथा अभेदवादको टालकर स्याद्वादियोंका कथंचित् भेदवाद ही सर्वत्र फैला हुआ है । तिस कारण केवल सत्स्वरूप ही अद्वैत तत्त्व वास्तविक स्वरूपसे सिद्ध नहीं हो पाता है । अद्वैतवादियोंके कहे हुये साधन ( हेतु ) घटित नहीं होते हैं । अर्थात्-सत्तापनेसे अविशेष या प्रतिभासमानपना आदि हेतु " सर्व एकं" को सिद्ध करनेके लिये विरुद्ध पड जाते हैं। प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे अनेक जातिवाले पदार्थ जाने जा रहे हैं । इस कारण अनेक अर्थोंमें