Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
हां, साथ होनेवाली पर्यायोंके एक समुदायपनकी व्यवस्थाका कारण एकद्रव्यको अधिकरण मानकर रहनापन तो है, किन्तु यह तीनों कालमें अन्वयरूपसे ठहरनेवाले द्रव्यके माननेपर ही बन सकता है, अन्यथा नहीं । और तिल, सरसों, आदिके रूप, रस, आदिकोंका न्यारा न्यारा समुदाय या सजातियोंके कथंचित् एकत्वका नियमरूप साधर्म्य भी अन्वेता क्षेत्रसम्बन्धके माननेपर बनता है। किन्तु फिर चाहे जिन अनेक द्रव्योंका तो समानधर्मधारीपना नहीं बन पाता है। यदि कोई समान हेतुवाले पदार्थीका साधर्म्य कहे सो यह तो केवल व्यर्थ बकवाद है। क्योंकि विसदृश कारणोंसे उत्पन्न हुये पदार्थोका भी प्रायः करके साधर्म्य देखा जाता है, जैसे कि चांदी खानसे उत्पन्न होती है और सीप जलमें उत्पन्न होती है, चांदी धातु है सीप हड्डी है। चांदी पवित्र है, सीप सदा अपवित्र है। एकेन्द्रियजाति नाम कर्मके उदयसे जीवका चांदी शरीर बना था और सीपका शरीर द्वीन्द्रिय जाति नामकर्मसे बना था । किन्तु इनका चाकचक्य होनेसे साधर्म्य माना जाता है। सर्प, रज्जु, आदिका भी साधर्म्य देखा गया है। यदि समान परिणतिके विद्यमान होनेसे पदार्थोका साधर्म्य माना जायगा तब तो एक विशेष भावप्रत्यासत्तिसे ही साधर्म्य होना इष्ट किया गया, किन्तु वह समान जातिवाला परिणाम तो देरतक एक सदृश परिणमन करनेवाले अनेक द्रव्योंके न माननेपर नहीं सम्भवता है। इस कारण उन सन्तान, समुदाय, और साधर्म्यको कहनेवाले बौद्धवादियोंको एकद्रव्यपनका अपह्नव करना कल्याणकारी नहीं है। अपना सिद्धान्त मानकर कहना और उत्तर समझना फिर आक्षेप करना आदि क्रियायें तो अनेक क्षणोंतक ठहरनेवाले ही बौद्धोंके बन सकेंगी। और तभी उनको कल्याणमार्ग प्राप्त हो सकेगा अन्यथा नहीं।
प्रेत्यभावः कथमेकत्वाभावे न स्यादिति चेत् तस्य मृत्वा पुनर्भवनलक्षणत्वात् । सन्तानस्यैव मृत्वा पुनर्भवनं न पुनद्रव्यस्थेति चेन्न, सन्तानस्यैकद्रव्याभावे नियमायोगस्य प्रतिपादनात् । कथंचिदेकद्रव्यात्मनो जीवस्य प्रेत्यभावसिद्धेः।
यदि कोई यो प्रश्न करे कि अन्वित एक द्रव्यपनेके न माननेपर भला प्रेत्यभाव क्यों नहीं बनेगा ! इसपर हमारा यह उत्तर है कि उस प्रेत्यभावका स्वरूप मरकर पुनः जन्म लेना है मरनेवाला वही एक जीव यदि जन्म लेवे तब तो प्रेत्यभाव बनता है, अन्यथा नहीं । सन्तानका ही मरकर पुनः जन्मधारण करना है फिर एक जीव द्रव्यका नहीं यह तो न कहना। क्योंकि एक द्रव्यके न माननेपर किन ही विवक्षित सन्तानियोंका ही यह पूर्वापर लडीरूप सन्तान है, इस नियमका अयोग है। इसको हम अभी स्पष्ट कह चुके हैं। वस्तुतः देखा जाय तो कथंचित् एकद्रव्यस्वरूप जीवका ही मरकर पुनः जन्म ग्रहण करना सिद्ध होता है। एक क्षणमें ही रहनेवाला सन्तानी मर तो जायगा किन्तु पुनः उसीका उत्तरकालमें जन्मधारण नहीं हो सकता है । वही बबूला नष्ट होकर पुनः बबूला नहीं हो सकता है । हां, उसका जलद्रव्य भले ही फिर बबूला पर्यायको धारण करले ।
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