Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
दीनां वा समुदायसाधर्म्यप्रसक्तेः। प्रत्यासत्तेविशेषात्केषांचिदेव संतानः समुदायः साधर्म्य च विशिष्टमिति चेत्, स कोन्योऽन्यत्रैकद्रव्यक्षेत्रभावपत्यासत्तेरिति नान्वयनिन्दचो युक्तः।
___ बौद्ध अपने मतका अवधारण करते हैं कि बीज, अंकुर, लघुवृक्ष आदिका एकत्व न होनेपर भी सन्तान सिद्ध हो जाता है अर्थात् अंकुर अवस्थामें वीजके सर्वथा नष्ट हो जानेपर और लघुवृक्ष (पौदा ) की दशामें अंकुरका नाश हो जानेपर भी एकवंश माना जाता है, तभी तो उस बीजके
अनुरूप फल लगते हैं तथा न्यारे न्यारे तिल, सरसों, आदिका समुदाय भी बन जाता है और :: तिल आदिका सादृश्य होनेसे साधर्म्य बनना भी शक्य है। प्रत्युत भेद होनेपर ही सन्तान आदिकी . भले प्रकार सिद्धि होती है । तिस हीके समान सभी स्थलोंपर क्षणिक, छोटे, और विभिन्न धर्मवाले पदार्थोके होनेपर भी उन सन्तान आदिकी सिद्धि होजायगी तो फिर द्रव्यरूप करके एकत्व माननेसे जैनोंको क्या लाभ है ? यानी एकत्व मानना व्यर्थ है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना। क्योंकि यों तो सभी गेंहू, जौ, चने, के बीज और अंकुर आदिकोंकी परस्पर एक सन्तान बन जानेका प्रसंग आवेगा। जैसे गेंहू और गेंहूके अंकुरका भेद है, उसी प्रकार गेंहू और जौके अंकुरका भी भेद है । फिर इनकी एकसन्तान क्यों न बन जावे ? तथा सम्पूर्ण तिल, घट, रुपया, घोडा आदिकोंका भी समुदाय बन जाना चाहिये । इसी प्रकार इनके सधर्मापन बननेका भी प्रसंग होगा, जो कि बौद्धोंको इष्ट नहीं है । यदि आप बौद्ध यों कहे कि किसी विशेषसम्बन्धसे किन्हीं ही विवक्षित पूर्वोत्तरभावी सन्तानियोंका सन्तान बनता है और विशेषसम्बन्धके वश ही किन्हीं नियत पदार्थोंका ही समुदाय अथवा विशिष्ट साधर्म्य बनता है । अन्य तटस्थ पदार्थोका नहीं, ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि वह विशेष सम्बन्ध एकद्रव्यप्रत्यासत्ति, एकक्षेत्रप्रत्यासत्ति, और एकभावप्रत्यासत्तिके अतिरिक्त भला अन्य कौन हो सकता है ? भावार्थ-एक द्रव्यमें उसकी भूत, वर्तमान, भविष्यत् अनेक पर्यायें तदात्मक हो रही हैं । अतः उनका एकद्रव्य सम्बन्ध होनेके कारण सन्तान बन जाता है। अन्य द्रव्यकी पर्यायें उस सन्तानमें अन्वित नहीं हो पाती हैं। और कुछ लम्बे चौडे एक क्षेत्रमें सजातीय अनेक पदार्थोके ठहरनेपर उनका एकक्षेत्र सम्बन्ध हो जानेके कारण समुदाय बन जाता है। अन्यक्षेत्रवर्ती पदार्थका इस समुदायमें योग नहीं है । तथा समानरूपसे परिणमन करनेवाले पदार्थोका एकभावप्रत्यासत्ति होनेसे साधर्म्य बन जाता है । सर्वथा भिन्नोंका नहीं । इस प्रकार बौद्धोंको ओत पोत रहनेवाले एकपनेके ध्रुव अन्वयका निह्नव करना युक्त नहीं है।
न व्यभिचारी कार्यकारणभावः सन्ताननियमहेतुः सुगततरचित्तानामेकसंतानत्वप्रसंगादिति समर्थितं प्राक् ।
बौद्ध मतमें व्यभिचार दोषसे रहित कार्यकारणभाव सम्बन्ध तो सन्तानकी नियतव्यवस्था