Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यलोकवार्तिक
निरूपितं । " सन्तानः समुदायश्च साधर्म्यञ्च निरंकुशः । प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्वनिहवे ॥” इति ।
___ बौद्ध यदि यों कहें कि कालिकप्रत्यासत्तिसे मान ली गयी अनेक क्षणिक परिणामोंकी लडी रूप सन्तान और दैशिक प्रत्यासत्तिसे गढ लिया गया अनेकक्षणिक परिणामोंका समुदाय तथा समानधर्मोका कल्पित किया गया साधर्म्य एवं मर करके पुनः जन्मधारण करना रूप प्रेत्यभाव और भी पुण्य, पाप, मोक्षके मार्गोका अनुष्ठान करना इन सबको हम वस्तुको न छूनेवाली व्यवहार कल्पनासे स्वीकार करलेते हैं । अतः परमार्थरूपसे उनके अभाव हो जानेका प्रसंग हमको अनिष्ट नहीं है। ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछते है कि इस समय क्या आप बौद्धोंके यहां सम्वेदनका अद्वैत ही परमार्थभूत पदार्थ हुआ समझा जाय। इसपर सौत्रान्तिक बौद्ध यदि यों कहें कि अन्वयरहित होकर विनाश स्वभाववाले और केवल एक क्षण है स्थिति जिनकी ऐसे अनेक घटखलक्षण आत्मक परमाणुयें पटवलक्षण आत्मक क्षणिक सूक्ष्म असाधारण परमाणुयें आदि पदार्थोका अनुभव हो रहा है । अतः वह सम्वेदन अद्वैत भी नहीं है । इस प्रकार कहने पर तो बौद्धोंको बाधक रहित होनेके कारण सभी सन्तान, समुदाय, आदिक पदार्थ अभीष्ट हो जायेंगे। किन्तु दूसरे ही क्षणमें द्रव्यपनेके अन्वयसे रहित होकर नाश हो जानेका एकान्त पक्ष माननेपर कल्पनासे भी वे सन्तान आदिक न बन सकेंगे और तिस ही प्रकार श्री समन्तभद्राचार्य स्वामीने देवागममें भी यह निरूपण किया है कि मालामें पुवे हुए डोरेके समान ध्रौव्यपनके एकत्वको यदि छिपाया जायगा तो बौद्ध मतमें सन्तान, समुदाय, साधर्म्य, मरकर पुनः जन्म लेना, ये सभी बाधारहित होते हुए सिद्ध नहीं हो सकेंगे । भावार्थ-क्षणवर्ती पदार्थ जब समूलचूल नष्ट हो गया और द्रव्यदृष्टि से भी वह आगे पीछे विद्यमान नहीं है । ऐसी दशामें सर्वथा न्यारे न्यारे सन्तानियोंकी सन्तान नहीं बन सकती है। जैसे कि अन्य सन्तानके सन्तानियोंका संयोजन प्रकृत सन्तानमें नहीं हो सकता है और अवयवीको नहीं मानकर क्षणिक परमाणु रूप अवयव ही माने जाते हैं । उनका कथमपि एकत्रीकरण नहीं बनना स्वीकार किया जाता है । ऐसी दशामें एकत्व परिणतिके विना समुदाय नहीं बन सकता है । तथा असाधारण या विसदृशपनेका आग्रह करनेवाले बौद्धोंके यहां सदृश परिणामरूप एकत्वके छिपानेपर सधर्मी पदार्थोका साधर्म्य नहीं बनता है। जैसे कि सर्वथा विसदृश पदार्थीका साधर्म्य नहीं बन पाता है । एवं दोनों भवोंमें अनुयायी एक नित्य आत्माको न स्वीकार करनेपर मरकर पुनः उत्पन्न होना भी नहीं बन पाता है और ऋण भी देने लेने तथा माता, पुत्र, ब्रह्मचर्य, आदिपदार्थ भी अस्थिर पक्षमें नहीं बनते हैं ?
ननु च बीजांकुरादीनामेकत्वाभावेपि संतानः सिद्धस्तिलादीनां समुदायः साधर्म्य च तद्वत्सर्वत्र तत्सिद्धौ किमेकत्वेनेति चेन, सर्वबीजांकुरादीनामेकसंतानत्वापत्तेः, सकलतिला