Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामाणिः
यदि व्यवहार नयसे भी उन पदार्थोंको स्वाश्रयपना माना जायगा तो आकाशके समान उन सभी पदार्थोके सर्वगतपन, अमूर्तपन, सबको अवकाश देनापन, आदि प्रसंगोंका भी कठिनतासे निवारण हो सकेगा। यहां सांख्य यदि यों कहें कि सम्पूर्ण द्रव्योंको सर्वव्यापक हो जानेपर कौन दोष आता है ! बताओ ! ऐसा कहनेपर तो हम यह स्पष्ट उत्तर कहते हैं कि प्रमाणप्रसिद्ध प्रतीतियोंसे विरोध होना ही महान् दोष है । जैसे कि संसारी जीव या पुद्गलको अमूर्त्तत्व साधनेमें और धर्म, अधर्म, आकाश, तथा कालको मूर्तपना साधनेमें प्रतीतियोंसे विरोध आता है। घट, पट, देवदत्त, इन्द्रदत्त, आदि पदार्थ अल्पक्षेत्रमें ठहरे हुए सबके द्वारा जाने जा रहे हैं । आकाशके व्यापकपने
और शेष द्रव्योंके अव्यापकपनका पांचमे अध्यायमें और भी हम स्पष्ट निरूपण कर देंगे । प्रतीतियोंका अतिक्रमण करनेपर तो व्यवस्थापक कारण न होनेसे कोरे ज्ञानसे जान लिये गये सम्पूर्ण पदार्थ मान लेना अन्याय है । व्यर्थ बकवाद है । अतः ऐसा नीतिरहित कथन ग्राह्य नहीं, किन्तु उपेक्षा करने योग्य ही समझा जायगा। इस प्रकार प्रतीतियोंके अनुसार अधिकरण सिद्ध हो गया है । अतः पदार्थोकी अधिगतिका चौथा उपाय जानने योग्य है। यहांतक अधिकरणका निरूपण हुआ । अब स्थितिका व्याख्यान करते हैं ।
अस्थिरत्वात्पदार्थानां स्थिति वास्ति तात्त्विकी । क्षणादूर्ध्वमितीच्छन्ति केचित्तदपि दुर्घटम् ॥ २१॥ निरन्वयक्षयैकान्ते सन्तानाद्यनवस्थितेः ।
पुण्यपापाद्यनुष्ठानाभावासक्तेर्निरूपणात् ॥ २२ ॥
तहां बौद्ध कहते हैं कि सम्पूर्ण पदार्थोको अस्थिरपना होनेके कारण एक क्षणसे ऊपर किसीकी भी वास्तविक स्थिति नहीं है। इस प्रकार कोई बौद्ध इष्ट करते हैं, सो वह अस्थिरपना कठिनतासे भी घटित नहीं हो पाता है। क्योंकि पाषाण, लोहा, आदि पदार्थ अनेक क्षणोंतक ठहरने वाले प्रतीत हो रहे हैं । बौद्ध लोगोंके यहां एक क्षणमें ही अन्वयरहितपनेके साथ क्षय हो जानेका एकान्त मानने पर सन्तान, समुदाय, आदिकी सुव्यवस्था नहीं हो पाती है । इस कारण क्षणिक पक्षमें पुण्यकर्म करना, पाप, मोक्ष, ऋण देना, आदि अनुष्ठान करनेके अभावका प्रसंग आता है । इसका श्रीसमन्तभद्र भगवान्ने देवागममें अच्छा निरूपण किया है ।
सम्वृत्या सन्तानसमुदायसाधर्म्यप्रेत्यभावानां पुण्यपापमुक्तिमार्गानुष्ठानस्य चाभ्युपगमात् परमार्थतस्तदभावासक्तिर्नानिष्टेति चेत्, किमिदानी सम्वेदनाद्वैतमस्तु परमार्थ सद, निरन्वयविनश्वराणामेकक्षणस्थितीनां नानापदार्थानामनुभवात् तदपि नेति चेत् तर्हि इष्टं सन्तानादि सर्व निरंकुशत्वात् तच्च निरन्वयक्षयैकान्ते सम्वृत्यापि न स्यात् । तथा च