Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामाणः
५७१ ।
द्रव्यमें तादात्म्य सम्बन्धके माने विना उन प्रदेशोंका अव्यवधान होना नहीं बन पावेगा। किन्तु अखण्ड अछिद्र द्रव्यके उन प्रदेशोंका अव्यवधान अवश्य होना चाहिये । यदि प्रसिद्ध सत्तावाले उन अनन्त प्रदेशोंका पुनः अन्य व्यवधायक पदार्थसे व्यवधान होना माना जावेगा तो अनवस्था हो जायगी अर्थात् वह दूसरा व्यवधायक पदार्थ भी लम्बा चौडा व्यापक होगा। उसके भी अनेक प्रदेशोंमें मध्यवर्ती व्यवधानको डालनेवाला तीसरा व्यवधायक माना जायगा । इस ढंगसे अनवस्था दोष है और एक द्रव्यके साथ तादात्मकपना माननेपर कोई दोष नहीं आता है । जिस एक अखण्ड द्रव्यके साथ उन अनन्त प्रदेशोंका कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध है, वही हम स्याद्वादियोंके यहां आकाश द्रव्य है । इस प्रकार उस आकाशको एकद्रव्यपनेकी सिद्धि हो गयी । इस कारण हेतुका विशेष्य दल एकद्रव्यपना आकाशरूप पक्षमें वृत्ति हो जानेसे असिद्ध हेत्वाभास नहीं है । अव्यापक अर्थोका अत्यन्ताभाव या वैशेषिक मतानुसार अन्योन्याभावस्वरूपपना भी आकाशमें साधन कर दिया है । वैशेषिकोंके यहां भूतलमें घट नहीं है, आकाशमें ज्ञान नहीं है ऐसे सप्तम्यन्त और प्रथमान्त पदोंके उच्चारण होनेपर अत्यन्ताभाव माना गया है । पट घट नहीं, आकाश आत्मा नहीं है, इस प्रकार प्रथमान्त पदोंके स्थलपर अन्योन्याभाव माना है । किन्तु जैनोंने घट, पुस्तक, पट आदि पुद्गलकी पर्यायोंमें परस्पर अन्योन्याभाव माना है । क्योंकि घट भी कालान्तरमें पटस्वरूप हो सकता है। किन्तु जो द्रव्य या पर्यायें तीनों कालोंमें जिस रूप न हो सकें उनका परस्परमें अत्यन्ताभाव स्वीकार किया है । तिस कारण सत्यन्त विशेषणसहित हेतुके पक्षमें वर्त जानेसे वह आकाश अन्तरहित अनन्त सिद्ध हो जाता है । जो अनन्त है, वही छह द्रव्योंके समुदायरूप सम्पूर्ण लोकका अधिकरण है । अनन्त होनेके कारण ही वह स्वयं अपना भी आधार है । इस कारण अन्य आधारोंकी कल्पना करते करते अनस्था दोष नहीं हैं। क्योंकि फिर उस आकाशके अन्य आधारोंकी उपपत्ति नहीं है । दूसरी तीसरी या चौथी आकाशरूप कोटिपर ही रुककर आकांक्षा शान्त हो जाती है । निश्चय नयसे देखा जाय तो सबसे छोटा परमाणु और सबसे बडा लोक या आकाश भी अपनेमें ही आप ठहरे हुए हैं। असंख्यात योजन ऊंचे लोकके नीचे लगा हुआ साठ हजार थोजन मोटा वातवलय विचारा क्या कर सकता है ? और फिर वातवलयको भी तो अन्य आधार चाहिये । अंगरखामें लगी हुयी गोटके समान नीचे केवल शोभाको प्राप्त हो रहा है। यदि वह आठ पृथिवियोंके नीचे या लोकके नीचे अथवा चारों ओर न भी होता तो भी अनन्त अलोकके ठीक बीचमें यह लम्बा चौडा भारी लोक डटा रह सकता था। एक प्रदेश भी इधर उधर हिल डुल नहीं पाता। किंतु आचार्य महाराजने वस्तुस्थितिके अनुसार ऊपर नीचे ठहरनेवाले पदार्थोकी यथार्थ व्यवस्था बता दी है। गोदमें जगता हुआ बालक सोते हुए बालककी अपेक्षासे अपने शरीरको अधिक डाट रहा है, तभी तो उसका भार उतना होते हुए भी लघु प्रतीत होता है । शरीरके अंग, उपांग, धातु, उपधातु, और मल, मूत्रोंको शरीरप्रकृति अपने बलानुसार डाटे रहती है। हां ! अति रुग्ण अव