Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 583
________________ ५७० तत्वार्यकोकवार्तिके सिद्ध करनेके लिये एकद्रव्यरूप हेतुका अव्यापक अर्थोके अभावस्वरूप यह विशेषण क्यों दिया जाता है ! अव्यापक अर्थके भावस्वभाव होते हुए भी परमाणुओंमें अन्तविहीनता बन जाती है। कोई विरोध नहीं आता है। परमाणुका घट आदिकके समान कोई अन्त अंश नियत नहीं है । परमाणुका अपना स्वरूप ही आदि है और वही मध्य है तथा अपना पूरा शरीर ही अन्त है। " अत्तादि अत्तमज्झं अत्तत्तं णेव इन्दिये गेज्मं । जं दव्वं अविभागी तं परमाणु विजाणीहि ॥" यह परमाणुकी परिभाषा आपने मानी है । बौद्धोंके इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि तब तो वे रूप परमाणुएं या रस, गन्ध, आदिकी परमाणुएं सम्पूर्ण एक ही समय क्या परस्परमें संसर्गयुक्त हैं ! अथवा अन्तरालसहित होंगे ? बताओ ! प्रथम पक्षके अनुसार वे परमाणुएं आप बौद्धोंके मतानुकूल सम्बन्धित तो नहीं हैं। क्योंकि सम्पूर्ण देशोंसे या एकदेशसे उनके संसर्ग होनेका आपने स्वयं निषेध कर दिया है। अर्थात् एक परमाणुका दूसरे परमाणुके साथ यदि पूरे भागोंमें सम्बन्ध मान लिया जायगा तो परमाणुके बराबर व्यणुक बन जायगा। मेरु, सरसों, व्यणुक, ये सब परमाणुके बराबर हो जायेंगे। अथवा विवक्षित परमाणुका अन्य परमाणुके साथ यदि एक भागसे सम्बन्ध होना माना जायगा तो पुनः उस विवक्षित परमाणुके अनेक देशोंकी कल्पना प्रथमसे ही करनी पडेगी, तभी तो उसके एक एक भाग बन सकेंगे । और उन देशोंमें भी एक एक अंशसे पुनः संसर्ग माननेपर अनवस्था हो जायगी । अतः सम्पूर्ण परमाणुओंका एक समय सम्बन्धित होना तो बनेगा नहीं तथा द्वितीयपक्षके अनुसार उन परमाणुओंका व्यवधानसहितपना माननेपर तो उन अनन्त परमाणुओंका परस्परमें व्यवधान करानेवाला कोई अनन्त प्रदेशवाला पदार्थ स्वीकार करना चाहिये और वही हमारे यहां आकाश. माना गया है । वह आकाश उन अव्यापक परमाणुओंका अभाव ( भिन्न ) स्वरूप है । इस प्रकार आकाशको सम्पूर्ण अव्यापकअर्थोका अभाव-स्वरूपपना सिद्ध हो गया। न च तस्यानन्ताः प्रदेशाः परस्परमेकशी व्यवहिता यतस्तब्यवधायकान्तरकल्पनायामनवस्था कथंचिदेकद्रव्यतादात्म्येनाव्यवहितत्वात् अन्यथा तदव्यवधानायोगात् । भवितव्यं वाऽव्यवधानेन तेषां प्रसिद्धसत्त्वानां व्यवधानेनवस्थानात् । येन चैकेन द्रव्येण तेषां कथञ्चित्तादात्म्यं तन्नो व्योमेति तस्यैकद्रव्यत्वसिद्धिरिति नासिद्धं व्योम्नो सर्वगतार्थाभावस्वभावत्वसाधनम् । ततस्तदनन्तं सर्वलोकाधिकरणमिति नानवस्था तदाधारान्तरानुपपत्तेः। ___उस व्यापक अखण्ड आकाशद्रव्यके अनन्तानन्त प्रदेश परस्परमें एक एक होकर व्यवधान युक्त है सो नहीं समझना। जिससे कि उन आकाश प्रदेशोंका भी परस्परमें व्यवधान करानेवाले अन्य पदार्थकी कल्पना करते सन्ते अनवस्था दोष हो जाता । यानी आकाशके प्रदेशोंका पुनः व्यवधान करानेवाला कोई अन्य पदार्थ नहीं है । एक ठोस आकाश द्रव्यमें उसके अनन्त प्रदेशोंका कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्ध हो जानेके कारण स्वतः व्यवधान रहितपना है । अन्यथा यानी एक

Loading...

Page Navigation
1 ... 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674