Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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यहां अनवस्था दोषका प्रसंग नहीं है । क्योंकि छह द्रव्योंके समुदायरूप सम्पूर्ण लोकका आधार और सब ओर दशों दिशाओंसे अन्तरहित ऐसे आकाशको स्वयं अपना आश्रयपना सिद्ध कर दिया जाता है । अतः गुणोंके आधार द्रव्य हैं । और द्रव्योंका आधार आकाश है । सर्व • व्यापक होनेसे आकाशका कोई अन्य आश्रय नहीं है । वह स्वप्रतिष्ठ है । अतः तीसरी कोटिपर अवस्थिति हो जाती है। वस्तुस्थितिके अनुसार आधार आधेयपन बन गया और अनवस्था दोष भी नहीं रहा । बात यह है कि जैनसिद्धान्त अनुसार अलोकाकाशके अनंतानन्त प्रदेश भी संख्या में परिमित हैं जो कि अक्षयअनंत जीवराशिसे अनन्तगुणी, पुद्गलराशिसे भी अनन्तगुणी हैं । पोलकी नापमें पोल नहीं है । श्रीत्रिलोकसार में द्विरूपवर्गधाराको गिनाते समय अनन्तराजू लम्बी अलोकाकाशकी श्रेणीको और प्रतराकाशको नापा है । उक्त श्रेणी और प्रतरको गुणा करदेनेसे चौकोर बरफीके समान पूरे अलोकाकाशके सर्वप्रदेश गिन लिये जाते हैं । अनन्तानन्तराजू लम्बे और उतने ही चौडे मोटे आकाश के बाहर फिर कोई पदार्थ नहीं है । आंख मीच लेनेपर तुमको कोई पूछे कि क्या दीखता है ? उसका उत्तर " कुछ नहीं " यही है । कोई बालक कह देता है कि हमको तो आंख मीचनेपर काला काला दीखता है। वस्तुतः यह भ्रम है । ज्ञानाभाव है । मध्यम अनन्तानन्त प्रदेशी होनेपर भी आकाश परिमित है । केवलज्ञानी जिनेन्द्रदेव आकाशकी अन्तिम मर्यादाको उसी प्रकार इससे भी अधिक स्पष्ट जान रहे हैं जैसे कि हम किसी प्रासाद ( हवेली ) की छैऊ दिशाओंकी अन्तिम सीमाको आखोंसे देख रहे हैं या परमाणुके आकारवाली बरफीके छःऊ पैलोंको स्पष्ट जान रहे हैं। यह अनन्त आकाशका स्पष्टीकरण है।
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स्वाश्रयं व्योम, समन्ततोन्त विहीनत्वान्यथानुपपत्तेः । समन्ततोन्तविहीनं तत् सकका सर्वगतार्थाभावस्वभावत्वे सत्येकद्रव्यरूपत्वात् । रूपादिपरमाणूनां रसादिपरमाणुभावरूपत्वादविरोध इति चेत् ते तर्हि रूपरसादिपरमाणवः सर्वे सकृत्परस्परं संसृष्टा व्यवहिता वा स्युः, न तावत्संसृष्टाः कात्स्न्र्त्स्न्येनैकदेशेन वा संसर्गस्य स्वयं निराकरणात् । व्यवहितत्वे तु तेषामनन्तानामनन्तप्रदेशं व्यवधायकं किञ्चिदुररीकर्तव्यं तदेव व्योम तेषामभाव इति सिद्धं सकला सर्वगतार्थाभावस्वभावत्वं व्योम्नः ।
आकाश ( पक्ष ) अपने ही आधार ठहरा हुआ है ( साध्य ) क्योंकि सभी ओरसे अन्तरहितपना अन्यथा यानी स्वाश्रयपनके विना बन नहीं सकता है ( हेतु ) । इस हेतुको पुनः अनुमान बनाकर सिद्ध करते हैं कि वह आकार ( पक्ष ) सत्र ओरसे अन्तविहीन है ( साध्य ) क्योंकि सम्पूर्ण अव्यापक पदार्थोंके अभाव ( भेद ) स्वरूप होता सन्ता वह एकद्रव्यरूप पदार्थ है । ( हेतु ) बौद्ध कहते हैं कि रूप, रस, आदिकी परमाणुएं रस, गन्ध, आदिकी परमाणुओंके स्वभावरूप हो जाती हैं । अतः कोई विरोध नहीं है । भावार्थ1 - आप जैन और हम बौद्ध दोनोंने निरवयव परमाणुओंको आदि मध्य और अन्तसे रहित स्वीकार किया है । फिर अन्त विहीनपना
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