Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थाचन्तामाणः
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नन्वेवं युगपदेकत्र वस्तुनि सत्त्वासत्त्वद्वयस्य प्रसिद्धस्तदेव प्रतिषेध्येनाविनाभावि साध्यं न तु केवलमस्तित्वं नास्तित्वादि वा तस्य तथाभूतस्यासम्भवादिति चेन्न, नयोपनीतस्य केवलास्तित्वादेरपि भावाद सिद्धे वस्तुन्येकत्रास्तित्वादौ नानाधर्मे वादिप्रतिवादिनोः प्रसिद्धो धर्मस्तदप्रसिद्धन धर्मेणाविनाभावी साध्यत इति युक्तिसिद्धमस्तित्वादिधर्मसप्तकं कुतश्चित्पतिपत्तुर्विप्रतिपत्तिसप्तकं जनयेत् । जिज्ञासायाः सप्तविधत्वं तच्च प्रश्नसप्तविधत्वं तदपि वचनसप्तविधत्वमिति मूक्ता प्रश्नवशादेकत्र सप्तभंगी, भंगान्तरनिमित्तस्य प्रश्नान्तरस्यासम्भवात् । तदभावश्च जिज्ञासान्तरासम्भवात् तदसम्भवोऽपि विप्रतिपत्त्यन्तरायोगात् तदयोगोऽपि विधिपतिषेधविकल्पनया धर्मान्तरस्य वस्तुन्यविरुद्धस्यानुपपत्तेः, तदनुपपत्तावपि प्रश्नान्तरस्यामवर्तमानस्यासम्बन्धप्रलापमात्रतया प्रतिवचनानहत्वात् ।
___ नवीन शंका है कि इस प्रकार एक वस्तुमें एक समय सत्त्व और असत्त्व इनका उभय जब प्रसिद्ध होगया है राब तो वह उभय ही अपने प्रतिषेध्य अवक्तव्य, आदिसे अविनाभावी साध्य करना चाहिये । केवल अस्तित्व या अकेले नास्तित्व अथवा रीतेसे अवक्तव्यत्व आदिको तो प्रतिषेध्य के विना न रहनापन नहीं सिद्ध करना चाहिये । क्योंकि अकेले अस्तित्व आदिकको तिस प्रकार प्रतिषेध्योंके साथ रहनेपनका सम्भव नहीं है । अर्थात् जैनसिद्धान्तके अनुसार जब कभी पाये जायेंगे तो दोनों ही धर्म पाये जायेंगे अकेलेका मिलना असम्भव है । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना। क्योंकि नयोंके द्वारा ज्ञानलक्षणासे जान लिये गये केवल अस्तित्व या अकेले नास्तित्व आदि धर्मोका भी सद्भाव है । एक वस्तुमें अस्तित्व, अवक्तव्यत्व आदि अनेक धोके सिद्ध हो चुकनेपर-वादी और प्रतिवादीके यहां जो कोई भी एक धर्म प्रसिद्ध होगया है बह अप्रसिद्ध दूसरे धर्मोंके साथ अविनाभावी है ऐसा साध लिया जाता है । इस प्रकार अस्तित्व आदि सातों ही धर्म युक्तियोंसे सिद्ध होते हुये समझनेवाले पुरुषके किसी कारण सात प्रकार विवादोंको उत्पन्न करा देते हैं और वे सात प्रकारके विवाद स्थल ज्ञाताके सात प्रकार जाननेकी इच्छाओंको प्रकट करा देते हैं, तथा सात प्रकारकी जिज्ञासायें सात प्रकारके प्रश्नोंका उत्पाद कराती हैं। एवं श्रोताके वे सात प्रकार प्रश्न भी वक्ताके द्वारा उनके उत्तरमें दिये गये प्रतिवचनोंके सात प्रकारपनेको उत्पन्न कराते हैं या ज्ञापन कर देते हैं । इस प्रकार हमने एक वस्तुधर्ममें प्रश्नके वशसे सप्तभंगीका प्रवर्तना बहुत अच्छा कहा था । पचासवीं आदि वार्तिकोंसे इसी बातको पुष्ट किया है। सात भंगोंके समुदायसे अतिरिक्त अन्य आठवें नौमे आदि दूसरे प्रश्नोंके उत्थापन करनेका निमित्त असम्भव है । जब सातसे अधिक प्रश्न ही नहीं हैं तो उनके प्रत्युत्तरमें दिये जानेवाले आठवें आदि भंगोंके प्रतिवचन भी नहीं हो सकते, तथा उन सातसे अतिरिक्त प्रश्नोंका अभाव भी सात जिज्ञासाओंके अतिरिक्त आठवीं आदि जिज्ञासाओंके असम्भव होनेसे है और उन अन्य जिज्ञासाओंका