Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिक
आप बौद्धों का माना हुआ परमाणुओं में परस्पर असन्बन्धस्वभाव यानी विभक्त होकर रहनापन भी तो अनापेक्षिक नहीं है। अन्यथा अर्थात् असंबन्धको यदि अपेक्षाके विना ही होनेवाला माना जायगा तो किसी एक पदार्थका किसी अन्य एक अर्थकी अपेक्षा करके उस असम्बन्धकी व्यवस्था होती हुयी न बन सकेगी। जैसे कि स्थूलत्व, महत्त्व, आदि आपेक्षिक हैं । भावार्थ - आंवले से विल्ब बडा है | बिल्बसे नारियल बडा है । नारियल से पेठा बडा है । यह बडापन जैसे आपेक्षिक है, वैसे ही कुचारित्रवाला पुत्र पितासे न्यारा है । देवदत्त जाति से पृथग्भूत है । एक परमाणुका दूसरे परमाणुसे कोई सम्बन्ध नहीं है । ये असम्बन्ध भी झूठे बन बैठेंगे । किन्तु ये सब वस्तु के परिणामोंपर अवलम्बित हैं । यावन्ति कार्याणि तावन्तः प्रत्येकं वस्तुस्वभावाः ' । सम्बन्ध या असम्बन्ध कूटस्थ नित्य नहीं है, किन्तु परिणामके अनुसार बदलते रहते हैं । स्वामी के कार्य करनेपर ही, सेवक स्वामीपन पाता है । ऐसे ही पृथग्भाव भी परिणामोंपर टिका हुआ है। कोरी झूठी अपेक्षासे नहीं है । इसपर बौद्ध यदि यों कहें कि प्रत्यक्षज्ञानमें विशदरूपसे जाना जा रहा असम्बन्ध तो अनापेक्षिक ही है । हां ! उसके पीछे होनेवाले झूठे विकल्पज्ञान करके तो निर्णीत किया गया होकर जिस प्रकार आपेक्षिक है । तिस प्रकार अवस्तुभूत भी है, अर्थात् प्रत्यक्षसे जान लिया गया असम्बन्ध अंश वास्तविक है और कल्पनासे जाना गया असम्बन्ध अंश अवास्तविक है । सम्बन्ध तो कथमपि वस्तुभूत नहीं। ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहनेपर तो वस्तुके सम्बन्धस्वभावमें भी समान रूप से यह कथन लागू हो जाता है । वह सम्बन्ध प्रत्यक्षज्ञानमें नहीं प्रतिभासता है, यह न कहना । जिससे कि अनापेक्षिक न हो सके यानी प्रत्यक्षज्ञानसे जाना जा रहा और नहीं अपेक्षा रखता हुआ सम्बन्ध भी वस्तुभूत है । वस्तुभूत असम्बन्धकी अपेक्षा भावस्वरूप सम्बन्ध बलवत्तर हो वास्तविक है । दूसरी बात यह है कि आपेक्षिक पदार्थ सब झूठे ही थोडे होते हैं, समीचीन आरोपे गये सब पदार्थ सत्यार्थ हैं ।
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ननु च परापेक्षैव सम्बन्धस्तस्य तन्निष्ठत्वात् तदभावे सर्वथाप्यसम्भवात् । परापेक्षमाणो भावः स्वयमसन वापेक्षते सन् वा । न तावदसन्नपेक्षा धर्माश्रयत्वविरोधात् खरश्रृंगवत् । नापि सन् सर्वनिराशं सत्वादन्यथा सच्त्वविरोधात् । कथञ्चित् सन्नसन्नपेक्ष्य इत्ययमपि पक्षो न श्रेयान्, पक्षद्वयदोषानतिक्रमात् । न चैकार्थः सन्नसंश्च केनचिद्रूपेण सम्भवति विरोधादन्यथातीतानागताद्यशेषात्मको वर्तमानार्थः स्यादिति न कचित् सदसवव्यवस्था, संकरव्यतिकरापत्तेः । यतो परापेक्षाणामसन्निबन्धनः सम्बन्धः सिध्येत् । तदुक्तम् -- " परापेक्षादिसम्बन्धः सो सन् कथमपेक्षते । संश्च सर्वनिराशंसो भावः कथमपेक्षते || " इति कश्चित् ।
सम्बन्धको न माननेवाला बौद्ध आमन्त्रण करके जैनोंके प्रति कहते हैं कि परकी अपेक्षा करना ही सम्बन्ध है । क्योंकि वह सम्बन्ध अपेक्षा किये गये उन पदार्थोंमें रहता है । अपेक्ष