Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थसोकवार्तिक
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प्रसंग तो दूर हो जायगा, किन्तु उस सम्बन्धको अवयवसहितपनेका प्रसंग हो जायगा। जो सावयव है, वही एक एक भागसे अनेकोंमें ठहर सकता है। जैसे कि पांच अंगुली और एक हथेलीवाला डेरा पाणी एक एक देशसे पांच अंगुली और हथेलीवाले दक्षिण पाणिपर संयुक्त हो जाता है । तब तो फिर उन एक एक देशस्वरूप अपने अवयवोंमें भी अवयवीकी एक देशसे ही वृत्ति मानी जायगी तो फिर भी प्रकरणप्राप्त प्रश्न उठाना वैसाका वैसा ही अवस्थित रहेगा । अतः अनवस्था दोष उतर आता है। दूसरी बात यह है कि कार्य और कारणके मध्यमें रहनेवाले उस कार्यकारणभावके उपलम्भ होनेका प्रसंग होवेगा । जैसे कि दो कपाटोंके मध्यमें सांकल दीखती है किन्तु धूम और अग्निके मध्य में रहता हुआ कार्यकारण भाव तो दीखता नहीं है। अन्यथा बालक या पशुको भी धूम, अग्निके समान वह दीखना चाहिये था। उन कार्य और कारणोंसे उस सम्बन्धका अभेद माननेपर भी वह सम्बन्ध भला एक कैसे हो सकता है ? जो दो भिन्न पदार्थोसे अभिन्न है, उसको एकपनका विरोध है। दोसे अभिन्न दो ही होंगे । स्वयं अभिन्न ( एक ) होते हुए भी पदार्थका यदि भिन्न अर्थोके साथ तादात्म्य माना जायगा, तब तो एक परमाणुका भी सम्पूर्ण पदार्थोके साथ तादात्म्य हो जानेका प्रसंग होगा । ऐसी दशामें पूरा जगत् केवल एक परमाणुस्वरूप हो जायगा । अथवा एक परमाणु ही सम्पूर्ण जगत्वरूप बन बैठेगा । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार भेद एकान्त या अभेद एकान्तको माननेवाले दोनों वादियोंकी ओरसे दिया गया उलाहना उन हीके ऊपर लागू होता है । जैनोंके ऊपर नहीं। क्योंकि स्याद्वादियोंके यहां तिस प्रकार एकान्त नहीं माने गये है। अनेकान्तवादी तो यों कहते हैं कि तिस प्रकारके बाधारहित ज्ञानोंमें आरूढ होरहे कार्यकारणभाव नामक सम्बन्धकी अपने प्रतियोगी, अनुयोगी, रूप सम्बन्धियोंमें कथञ्चित् तादात्म्य सम्बन्धरूप ही वृत्ति है । जैसे कि बौद्धोंने ज्ञानकी अपने आकारोंमें कथञ्चित्तादात्म्यरूप वृत्ति मानी है । अर्थात् ज्ञान एक होकर भी अनेक आकारोंमें वर्त्तता हुआ जैसे माना गया है, वैसे ही एक सम्बन्ध भी अनेक सम्बन्धियोंमें कथञ्चित् तादात्म्यसम्बन्धसे वर्त्त रहा है ।
कुतोऽनेकसम्बन्धितादात्म्ये कार्यकारणभावस्य सम्बन्धस्यैकत्वं न विरुध्यते इति चेत् । नानाकारतादात्म्ये ज्ञानस्यैकत्वं कुतो न विरुद्धयते ? तदशक्यविवेचनत्वादिति चेत् तत एवान्यत्रापि कार्यकारणयोर्हि द्रव्यरूपतयैकत्वात् कार्यकारणभावस्यैकत्वमुच्यते न च तस्य शद्धे विवेचनत्वं मृद्रव्यात् कुशूलघटयोर्हेतुफलभावेनोपगतयोव्यान्तरं नेतुमशक्तेः। क्रमभुवोः पर्याययोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरुपादानोपादेयत्वस्य वचनात् । न चैवंविधः कार्यकारगभावः सिद्धान्तविरुद्धः।
जैनोंके प्रति बौद्ध पूंछते हैं कि अनेक सम्बन्धियोंके साथ तदात्मकपना हो जानेपर कार्यकारणभाव सम्बन्धका एकपना कैसे नहीं विरुद्ध होता है ? देखो, सम्बन्धी एक आकाशके साथ तादात्म्य रखता हुआ परम महापरिणाम एक है और अनेक शुद्ध आत्माओंमें तादात्म्य सम्बन्धसे वर्त्तनेवाले