Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः ।
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केवलज्ञान अनेक हैं । इसी प्रकार कार्य और कारण इन दो सम्बन्धियोंमें तादात्म्य सम्बन्धसे ठहरनेवाला कार्यकारणभावसम्बन्ध भी दो हो जायेंगे, इस प्रकार कटाक्ष करनेपर तो हम जैन भी पूंछते हैं कि आप बौद्धोंके यहां नील, पीत, आदि अनेक आकारोंमें तादात्म्यसे वृत्ति होने पर ज्ञानका एकपना क्यों नहीं विरुद्ध होता है ! इस पर यदि आप बौद्ध यों उत्तर दें कि उस एक ज्ञानका उसके अनेक आकारोंमेंसे पृथग्भाव नहीं किया जा सकता है। तब तो हम जैन भी वही उत्तर देदेंगे कि तिस ही कारण दूसरे स्थल यानी सम्बन्धमें भी यही कहा जा सकता है कि एक कार्यकारणभाव सम्बन्धका दो आदि सम्बन्धियोंमेंसे पृथक् करना अशक्य है । जैसे कि दो पदार्थोमें द्वित्व संख्या अकेली होकर तदात्मक ठहर जाती है । वैशेषिकोंने भी द्वित्व या त्रित्व संख्याका पर्याप्ति सम्बन्धसे दो या तीन द्रव्योंमें ठहरना माना है । इस विषयमें जैन सिद्धान्त ऐसा है कि कार्य और कारणके नियम करके द्रव्यरूपपनेसे एक होनेके कारण कार्यकारणभाव संबंधका एकपना कहा है । उस सम्बन्धका शब्दके निमित्तसे पृथक्करण नहीं होता है। द्रव्यपनेसे दोनों एक हैं । घटकी पूर्ववर्ती पर्याय कुशूल हेतु है और उत्तरवर्ती पर्याय घट उसका फल है । इस ढंगसे स्वीकार कर लिये गये कुशूल और घटकी पट, पुस्तक, आदि दूसरे द्रव्योंमें प्राप्त करानेके लिये शक्ति नहीं है । क्योंकि आगे पीछे क्रमसे होने वाली पर्यायोंमें एकद्रव्य नामक सम्बन्धसे उपादान, उपादेयपनका कथन किया गया है । एक द्रव्यकी पूर्वसमयवर्ती पर्याय उपादान कारण है और उत्तरसमयवर्ती पर्याय उपादेय कार्य है, ऐसा श्रीकार्तिकेय स्वामी और श्री समन्तभद्र स्वामी आदि महर्षिओंने कहा है । अतः ऐसे प्रकारका कार्यकारणभाव जैनसिद्धान्तसे विरुद्ध नहीं है । एक द्रव्यकी पर्यायें होनेके कारण उपादेय कार्यकी उपादान कारणके साथ एकद्रव्यप्रत्यासत्ति है । यह राद्धान्त पुष्ट होचुका है।
सहकारिकारणेन कार्यस्य कथं तत्स्यादेकद्रव्यमत्यासत्तेरभावादिति चेत् कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तत्सिद्धिः, यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरकार्यमिति प्रतीतम् । - यहां किसीका प्रश्न है कि घट, पट, आदि कार्योका अपने सहकारी कारण कुलाल, दण्ड, तुरी, वेमा, आदि सहकारी कारणोंके साथ वह पूर्वोक्त कार्यकारणभाव कैसे ठहरेगा ? क्योंकि एक द्रव्यकी पर्याय न होनेके कारण एक द्रव्य नामके सम्बन्धका तो अभाव है अर्थात् एक द्रव्यकी जो कतिपय पर्यायें हैं, उनमें एकद्रव्य नामका साक्षात् सम्बन्ध होता है। जैसे कि एक गुरुके अनेक चेलोंमें परस्पर एकगुरुपना सम्बन्ध है अथवा एक माताके अनेक पुत्रोंमें एकोदरत्व या सहोदरत्व सम्बन्ध है । ये परम्परासे होनेवाले सम्बन्ध एकद्रव्य सम्बन्धसे न्यारे हैं । इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन कालप्रत्यासत्ति नामके विशेष सम्बन्धसे सहकारी कारण और कार्योंमें उस कार्यकारणभाय • सम्बन्धकी कार्यसिद्धि होना मानते हैं जिससे अव्यवहित उत्तरकालमें नियमसे जो अवश्य उत्पन्न हो