Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 573
________________ तत्वार्यकोकवार्तिक किन्तु अकेले प्रतिवादीको भी मान्य होय तो भी वादी अपने सिद्धान्तको पुष्ट करनेके लिये प्रतिवादीके प्रति उसका प्रयोग कर अपना प्रयोजन साध सकता है। तथोभयत्र समानम् । यथैव हि तद्भावभावित्वानध्यवसायिनां न कचित्कार्यस्वकारणत्वनिश्चयोस्ति तथा स्वयमतद्भावभावित्वाव्यवसायिनामकार्यकारणत्वंनिश्चयोऽपि प्रतिनियतसामग्रीसापेक्षकत्वाद्वस्तुधर्मनिश्चयस्य । न हि सर्वत्र समानसामग्रीप्रभवो निर्णयस्तस्यान्तरंगबहिरंगसामग्रीवेचित्र्यदर्शनात् ।। . तिस प्रकार निश्चय न बननेके कारण कार्यकारणभावका या अकार्यकारणभावका साधारण जीवको ज्ञान न होना दोनोंमें एकसा है। जैसे ही उस कारणके होनेपर उस कार्यके होनेपनका नहीं निर्णय करनेवालोंको कुलाल घट या वन्हि धूम आदि किसी भी पदार्थमें कार्यपन और कारणपनका निश्चय नहीं हो पाता है, तिसी प्रकार स्वयं उसके न होनेपर होनेपनका नहीं व्यवसाय करनेवाले पुरुषोंको अकार्यपन और अकारणपनका निश्चय भी कहीं आकाश और आत्मामें नहीं हो पाता है । धर्मीके देखनेपर ही शीघ्र उसके धर्मोका भी निर्णय हो जाय, यह कोई नियम नहीं है । क्योंकि वस्तुके धर्मोका निश्चय होना प्रत्येक नियतसामग्रीकी अपेक्षा रखनेवाला है । सभी स्थलोंपर धर्मी और धर्मोकी सदृश सामग्रीसे ही निर्णय उत्पन्न हो जाय । ऐसी कोई राजाकी आज्ञा नहीं है। उस निर्णयके अन्तरङ्ग और बहिरंग कारणोंकी विचित्रता देखी जाती है । कहीं धर्माका ज्ञान होनेपर भी धर्मोका ज्ञान नहीं होता है और कहीं धर्मका ज्ञान हो जानेपर भी धर्मीका विशदज्ञान नहीं हो पाता है । कोई विद्वान् सूक्ष्मतत्त्वोंका निर्णय कर लेते हैं, किन्तु स्थूल लौकिक वृत्तोंको नहीं जान पाते हैं । शेष मनुष्य मोटी ऊपरी बातोंको जानकर सूक्ष्म रहस्योंके ज्ञानसे कोरे रह जाते हैं। भीतमें बनी हुयी सिगडीकी अग्निके उष्णपन धर्मका ज्ञान हो जाय किन्तु छिपी आगका ज्ञान न हो सके तथा औषधिका चाक्षुष प्रत्यक्ष भले ही हो जाय किन्तु उसके धर्मोका ज्ञान न होवे । अन्तरंग क्षयोपशम और बहिरंग शिक्षक, भक्ष्य, आचार, आदिकी परिस्थितिसे ज्ञानोंकी अनेक जातियां हो जाती हैं। . धूमादिज्ञानसामग्रीमात्रात्तत्कार्यत्वादिनिश्चयानुत्पत्तेः न कार्यत्वादि धूमादिवरूपमिति चेत् तहि क्षणिकत्वादिरपि तत्स्वरूपं माभूत्तत एव । क्षणिकत्वाभावे वस्तुत्वमेव न स्यादिति चेत् कार्यत्वकारणत्वाभावेऽपि कुतो वस्तुत्वं खरश्रृंगवत् । सर्वथाप्यकार्यकारणस्य वस्तुत्वानुपपत्तेः कूटस्थवत् क्षणिकैकान्तवद्वा विशेषासम्भवात् । बौद्ध कहते हैं धूआं, आग, आदिके ज्ञानोंकी सामान्य सामग्रीसे उनके कार्यपन, कारणपन, आदिका निश्चय उत्पन्न नहीं होता है । अतः कार्यत्व या कारणपन आदि तो धूम, अग्नि, आदिके स्वभाव नहीं हैं। ऐसा करनेपर तो हम जैन कहते हैं कि तब तो तिसी कारण उन नील आदि स्वलक्षणोंके भी क्षणिकपन, सूक्ष्मपन, असाधारणपन, आदि स्वरूप न होओ। क्योंकि आप बौद्धोंने

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