Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
यदि सम्बन्ध होना मानोगे तो फिर उन दोनोंका क्या सम्बन्ध होगा ! तिस प्रकार तो सम्बन्ध ज्ञान नहीं हो सकता है । भावार्थ-दण्ड और दण्डीका संयोग सम्बन्ध माना जाय और दण्डमें संयोग गुण समवायसम्बन्धसे रहे, अतः संयोग और दण्डका समवाय माना जाय । समवायसम्बन्ध भी संयोगमे स्वरूपसम्बन्धसे रहे । अतः संयोग और समवायका योजक स्वरूपसम्बन्ध माना जाय एवं समवायमें स्वरूपसम्बन्ध भी विशेषणता सम्बन्धसे रहे, इस प्रकार सम्बन्धियोंमें रहनेवाले सम्बन्धोंके ठहरानेके लिए अन्य सम्बन्धोंकी आकांक्षा बढ़ती जायगी। यह अनवस्थादोष सम्बन्ध ज्ञानको न होने देगा ? तथा वे दोनों सम्बन्धीरूप भाव और उनसे भिन्नसम्बन्ध तथा दूसरे पदार्थ वे सब अपने अपने स्वरूपमें स्थित हो रहे हैं । इस कारण पदार्थ अपने आप न्यारे न्यारे हैं। स्वयं व्यावृत्त हैं, मिले हुए नहीं हैं तो भी हां, व्यवहारी लोग कल्पनाज्ञानोंसे झूठ मूठ उन्हें मिला लेते हैं । इस प्रकार सम्बन्ध पदार्थ सम्बन्धियोंसे भिन्न होता हुआ भला कैसे स्वलक्षण माना जाता है ? बताओ ! अर्थात् नहीं। और उन सम्बन्धियोंसे अभिन्न पडे हुये सम्बन्धको तो तिस प्रकार इष्ट करोगे तब तो दोनों सम्बन्धरिप वस्तुओंसे भिन्न कोई सम्बन्ध पदार्थ नहीं बनता है । केवल कल्पनाके अतिरिक्त सम्बन्ध कोई वस्तु नहीं है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बडी देरसे कह रहा बौद्ध भी स्याद्वादियोंके मतको नहीं समझता है । वह स्याद्वाद सिद्धान्त तो सर्वथा भेद और सर्वथा अभेदके एकान्तसे प्रतिकूल होता हुआ सम्बन्धियोंसे सम्बन्धका कथंचित् भेद, अभेद, मानता है । अतः वह किसी भी दोषका स्थान नहीं है । - येन रूपेण लक्ष्यमाणः सम्बन्धो अन्यो वार्थः खलक्षणमिति तु परस्परापेक्षभेदाभेदात्मकं जात्यंतरमेवोक्तं तस्याबाधितप्रतीतिसिद्धत्वेन स्खलक्षणव्यपदेशात् । ततो न कल्पनामेवानुरुन्धानः प्रतिपत्तृभिः क्रियाकारकवाचिनः शद्धाः संयोज्यन्तेऽन्यापोहप्रतीत्यर्थमेवेति घटते येनेदं शोभेत । " तामेव चानुरुन्धानैः क्रियाकारकवादिनः । भावभेदप्रतीत्यर्थ संयोज्यन्तेऽभिधायकाः ॥” इति क्रियाकारकादीनां सम्बन्धिना तत्सम्बन्धस्य च वस्तुरूपमती तये तदभिधायिकानां प्रयोगसिद्धेः सर्वत्रान्यापोहस्यैव शद्वार्थत्वनिराकरणाच । ततः कश्चित्कस्यचित्स्वामी सम्बन्धात्सिद्धत्येवेति स्वामित्वमर्थानामधिगम्यं निर्देश्यत्ववदुपपन्नमेव ।
____ जिस स्वरूपसे लक्षित किया जाय ऐसा कोई सम्बंध पदार्थ या अन्य पदार्थ खलक्षण है, इस प्रकार कहनेपर तो परस्परमें अपेक्षा रखते हुए भेद, अभेद, स्वरूप, विभिन्न जातिवाला पदार्थ ही कहा जा सकता है । सर्वथा भेद या अभेदके एकान्तोंसे भिन्नजाति वाला वह कथञ्चित् भेद, अभेद, आत्मक पदार्थ बाधारहित प्रतीतियोंसे सिद्ध है। इस कारण स्वलक्षण इस नामको पा जाता है। बौद्धोंका माना गया स्वलक्षण तो स्वलक्षण नहीं है, किन्तु सुष्टु अलक्षण है । तिस कारणसे वास्तविक सम्बन्ध न होते हुए भी कल्पना हीके अनुरोधसे चलनेवाले व्यवहारी प्रतिपत्ताओं करके अन्यापोहकी प्रतीतिके लिये ही क्रिया कारकको कहनेवाले शब्द जोड लिये जाते हैं । जैसे कि हे