Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्यलोकवार्तिक
%3
अपने पहिले बने बनाये स्वरूपको फिर नहीं बनाता है तथा वह कारण खरविषाणके समान असत् पदार्थको भी नहीं बनाता है। यदि यहां कोई नैयायिक यों कहे कि प्रागभावका प्रतियोगी कार्य होता है। अतः पहिले नहीं विद्यमान किन्तु वर्तमान में विद्यमान ऐसे कार्यको कारण साधता है यह कहना भी अयुक्त है। क्योंकि इस तरह तो सत् कार्यको ही कारण बनाता है,इस पक्षका अतिक्रमण न हुआ और उत्पत्तिके पहिले असत् कार्यको कारण पहिले ही बना डालता है, यह तो नहीं कह सकते हो क्योंकि यों तो उस असत् कार्यके ही बनानेका प्रसंग आता है। उत्पत्तिके समय सत् ही कार्यको कारण बनाता है ऐसा कथन करनेसे तो क्यों नहीं सत्पक्ष ही आया। दोनों पक्षोंमें नैयायिक और जैन कार्यका बनाना सिद्ध नहीं कर सकते हैं। किसी द्रव्यकी अपेक्षासे सत् और पर्यायकी अपेक्षासे असत् कार्यको कारण बनाता है। यह स्याद्वाद पक्ष भी व्यवस्थित नहीं होता है। क्योंकि जिस स्वरूपसे कार्य सत् है उस स्वरूपसे उसका करना नहीं हो सकता है अन्यथा यानीं बने हुये सत् स्वरूपका भी पुनः उत्पादन किया जाय तो कारणको अपनी आत्माके भी पुनः निष्पादन करनेका प्रसंग होगा। तथा जिस स्वरूपसे वह कार्य कथंचित् असत् है, उस स्वरूपसे भी वह कर्तव्यपनेको प्राप्त नहीं होता है, जैसे कि शशके ( खरगोश ) असत् सींग नहीं किये जाते हैं। इस प्रकार दोनों पक्षके दोषोंको स्थान मिल जानेसे स्याद्वादियोंका सत् असत्रूप कार्यका पक्ष लेना भी अनाकुल नहीं है यानी आकुलताको उत्पन्न कराता है। किसी भी ढंगसे कार्यको नहीं बनाता हुआ तो कोई साधन नहीं हो सकता है। तथा वास्तविकरूपसे देखा जाय तो कार्यकारण भावका असम्भव है, सो ही हमारे बौद्ध ग्रन्थों में यों कहा है।
" कार्यकारणभावोऽपि तयोरसहभावतः । प्रसिद्धयति कथं द्विष्ठोऽद्विष्ठे सम्बन्धता कथम् ॥" क्रमेण भाव एकत्र वर्तमानोन्यनिस्पृहः। तदभावेऽहि भावाच्च सम्बन्धो नैकवृत्तिमान् ॥" यद्यपेक्ष्यतयोरेकमन्यात्रासौ प्रवर्तते । उपकारी ह्यपेक्ष्यः स्यात् कथं चोपकरोत्यसन् ॥" ययेकार्थाभिसम्बन्धात्कार्यकारणता तयोः। प्राप्ता द्वित्वादिसम्बन्धात् सव्येतरविषाणयोः ॥ " द्विष्ठो हि कश्चित्सम्बन्धो नातोन्यत्तस्य लक्षणम् । भावाभावी पधिर्योगः कार्यकारणता यदि ॥" योगोपाधी न तावेव कार्यकारणतात्र किम् । भेदाच्चेअन्वयं शद्धो नियोक्तारं समाश्रितः ॥ " पश्यन्नेकमदृष्टस्य दर्शने तदर्शने । अपश्यन् कार्यमन्वेति विनाप्याख्यातृभिर्जनः ॥ " दर्शनादर्शने मुक्त्वा कार्यबुद्धेरसम्भवात् । कार्यादिश्रुतिरप्यत्र लाघवार्थ निवेशिता ॥ तद्भावभावात्तत्कार्यगतिर्याप्यनुवर्ण्यते । संकेतविषयाख्या सा सास्नादेोगतिर्यथा ॥ भावे भाविनि तद्भावो भाव एव च भाविता । प्रसिद्ध हेतुफलते प्रत्यक्षानुपलम्भतः ॥ एतान्मात्रतत्त्वार्थाः कार्यकारणगोचराः । विकल्पाः दर्शयंत्यर्थान् मिथ्यार्थान् घटितानिव ॥ भिन्ने का घटनाऽभिन्ने कार्यकारणतापि का ।