Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
वर्ण्यते सा संकेतविषयाख्या, यथा असास्नादेरगोगतिः। नैतावता तत्त्वतोकार्यकारणभावो नाम। भावे हि अभाविनि वा भाविता अहेतुफलते प्रसिद्ध। प्रसिद्ध प्रत्यक्षानुपलम्माभ्यामेव । तदेतावन्मात्रतत्त्वार्थी एवाकार्यकारणगोचरा विकल्पा दर्शयन्त्यर्थान् मिथ्यार्थान् स्वयमघटितानपीति समायातम् । भिन्ने हि भावे का नामाघटना तत् कान्यावभासते ? येनासौ ताविकी स्यात् । अभिन्ने सुतरां नाघटना । न च भिन्नावौँ केनचिदकार्यकारणभावेन योगादकार्यकारणभूतौ स्याताम् । सम्बंधविधिप्रसंगात् । तदेवं न तात्त्विकोऽर्थो नामाकार्यकारणभावो व्यवतिष्ठते कार्यकारणभाववत् ।। ___हम भी बौद्धोंसे पूंछते हैं कि आपका माना हुआ अकार्यकारणभाव भी दोमें रहनेवाला ही होगा। तब कार्यपन और कारणपनेसे निषेधे गये दो असहभावी अर्थोंमें वह भला कैसे वर्तगा। हां! सहभावियोंमें तो विभागके समान रह भी जाता और वह अकार्यकारणभाव दोमें न रहे, यह तो ठीक नहीं। क्योंकि यों तो उसको सम्बन्धाभावपनेका विरोध होता है । पहिले भावमें वर्त करके फिर दूसरे में वर्तता हुआ भी वह यदि अन्यकी स्पृहा नहीं करेगा तो एकमें ठहरनेवाला वह असम्बन्ध भी भला कैसे हो सकता है ? अभी तक नहीं उत्पन्न हुए परवर्ती पदार्थके न होनेपर भी पूर्व समयवर्ती पदार्थमें वर्तता हुआ और पूर्व पदार्थके नष्ट होनेके कारण अभाव हो जानेपर भी उत्तर । समयवर्ती परपदार्थमें वर्त्त रहा वह असम्बन्ध एकमें ही वृत्ति होगा। यदि यहां बौद्ध यों कहें कि पहिलेमें वर्त रहा असम्बन्ध परकी अपेक्षा करता है और परसमयवर्ती पदार्थमें ठहरता हुआ पूर्व समयवर्ती पदार्थकी अपेक्षा रखता है। अतः अन्यकी निस्पृहता न होनेके कारण असम्बन्ध दोमें रहनेवाला ही है । ऐसे कहनेपर तो हम जैन कटाक्ष करेंगे कि नहीं उपकार करनेवाले तिस प्रकार उत्तर पदार्थकी वह अपेक्षा क्यों करेगा ? अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा । यानी चाहे कोई भी चाहे जिस उपकार न करनेवालेकी अपेक्षा कर बैठेगा। यदि सहित होकर उपकार करनेवालेकी वह अपेक्षा करता है ऐसा कहोगे सो तो ठीक नहीं। क्योंकि उस समय अविद्यमान पदार्थको उपकारकपनेका अयोग है । यदि फिर किसी एक पदार्थसे पूरा सम्बन्ध हो जानेके कारण पूर्व . उत्तर पदार्थोंमें अकार्यकारणभाव माना जायगा, तब तो बैलके डेरे और सीधे सींगोंमें भी अकार्यकारणभाव हो जाना चाहिये। क्योंकि द्वित्व, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, आदि एक पदार्थ करके ठीक सम्बन्ध हो रहा है और तैसा होनेपर तो हमको. सिध्यसाध्यपना ( सिद्धसाधन ) ही है। यानी यों तो सम्बन्ध पुष्ट हो जाता है । यही तो हम साधना चाहते हैं। कोई भी जो असम्बन्ध होगा वह दो आदि पदार्थोंमें ठहरनेवाला ही होगा। इससे भिन्न और कोई उसका लक्षण नहीं है। जिससे कि आप बौद्धोंका अभीष्ट सिद्ध हो सके । यदि फिर आप बौद्ध यों कहें कि पूर्ववर्ती पदार्थके अभाव होनेपर ही जो परवर्ती पदार्थका भाव है । और पूर्वके भाव होनेपर परका जो अभाव है, उसको विशेषण रखनेवाला अयोग ही अकार्यकारण भाव है । तब तो वे भाव,