Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामाणः
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अभाव, ही अयोग विशेषणवाले होकर क्यों नहीं अकार्यकारण भाव मान लिये जाय । असत् असम्बन्धकी कल्पनासे क्या लाभ ? यदि बौद्ध यों कहें कि भाव, अभावक साथ उस अकार्यकारण भावका विशेष्यविशेषण होनेके कारण उनमें भेद है । अतः वह अयोग ही अकार्यकारण भाव नहीं हो पाता। इसपर हम जैन भी वही कहेंगे जो कि आपने पहिले हमारे ऊपर कटाक्ष किया था । शब्द तो नियोक्ताके अधीन होकर प्रवर्तता है । प्रयोक्ता जिस प्रकार एक अर्थ या अनेक अर्थवाले शद्वको बोलता है, वह शब्द द्विरेफ, सरोज, तादात्म्य, अब्ज, पुष्कर, आदिके समान वैसे अर्थको . कह देता है । इस कारण भेद होनेपर भी अभेदको कहनेवाले शद्बका प्रयोग करना मान लिया गया है । अदृष्ट अकार्यके वर्तमानमें दर्शन होनेपर भी एक अकारणको नहीं देखता हुआ और उसके नहीं दीखनेपर देखता हुआ यह जन समुदाय व्याख्याताओंके विना भी यह इसका अकार्य है, यह इसका अकारण है, ऐसा स्वयं समझ लेता है । दर्शन अदर्शन या इनके विषयभाव अभावको छोडकर कहीं भी अकार्यबुद्धि नहीं होती है, तथा भाव अभाव ही अकार्य हैं और अकारण हैं इत्यादि शब्दप्रयोग भी उन दोनोंमें विरुद्ध नहीं पड़ते हैं। क्योंकि उन शब्दोंका निवेश करना लाघवके लिये है। जो भी फिर उस भाव, अभावके न होनेसे अकार्यपनेका ज्ञान होना कहा जाता है। वह केवल संकेतको जतानेवाली संज्ञा है । जैसे कि सास्ना आदिकके अभावसे गोसे भिन्न अगो पदार्थका ज्ञान कर लिया जाता है, इतने करके ही परमार्थरूपसे अकार्यकारणभाव कैसे भी नहीं बनता है । अतः अकार्यरूपभावके न होनेपर अकारणका होना अथवा अकारणके न होनेपर अकार्यका होना ही अहेतु फलपना प्रसिद्ध है । इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुपलम्भसे ही अकार्यता और अकारणता प्रसिद्ध हो जाती हैं । बस इतना ही वह केवल तत्त्वअर्थ है । जिसका ऐसे अकार्यकारणको विषय करनेवाले विकल्पज्ञान स्वयं सम्बद्ध पदार्थोको भी असम्बद्धोंके समान दिखला देते हैं। तभी तो वे झूठे अर्थको विषय करनेवाले है । यह सिद्धान्त प्राप्त हुआ। परिशेषमें यह कहना है कि भिन्न पदार्थमें भला असम्बन्ध भी क्या हो सकता है ? और वह असम्बन्ध भिन्न होकर कहां प्रतिभासता है ? अर्थात् वह अघटना न्यारी होकर कहीं नहीं दीखती है । जिससे कि वह असम्बन्ध वास्तविक हो जाय और अभिन्नमें तो सुलभतासे ही असम्बन्ध नहीं हो सकता है, तथा भिन्न पडे हुए अर्थ भी यदि किसी अकार्यकारणभावसे बन्ध जानेके कारण अकार्य और अकारणस्वरूप हो जायेंगे, तब तो यों बौद्धोंको वास्तविक सम्बन्धके विधान करनेका प्रसंग आ जावेगा । तिस कारण इस प्रकार अकार्यकारणभाव भी वास्तविक अर्थ कैसे भी सिद्ध नहीं होता है, जैसे कि बौद्धोंके यहां कार्यकारणभाव नहीं बनता है।
स्वस्वभावव्यवस्थितार्थान् विहाय नान्यः कश्चिदकार्यकारणभावोस्त्विति । तथा व्यवहारस्तु कल्पनामात्रनिर्मित एव कार्यकारणव्यवहारवदिति चेत् तर्हि वास्तव एव कार्य