Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्य लोकवार्तिके
I
इस दो आदिमें बन्ध जानेसे भिन्न कोई उस सम्बन्धका लक्षण नहीं है । ऐसी दशामें इस सम्बन्धका द्वित्वसंख्या, पृथक्त्व, आदिकसे अन्तर कैसे व्यवस्थित करोगे ? अर्थात् सम्बन्धसे संख्या आदि में कोई विशेषता नहीं है । यदि किसी कार्य या कारण के होनेपर होना और न होनेपर न होना इस प्रकार अन्वयव्यतिरेक द्वारा वे भाव और अभाव हैं विशेष जिसके ऐसे सम्बन्धको कार्यकारणता कहोगे ( ५ ) तब तो सभी सम्बन्ध सिद्ध नहीं होते हैं, क्योंकि उन भाव अभावरूप विशेषणाको ही यहां कार्यकारणभाव क्यों न मान लिया जाय? असत् सम्बन्धकी कल्पना करनेसे क्या लाभ है ! यदि सम्बन्धवादी जैन यों कहें कि होनेपर होना न होनेपर न होना इस भाव अभाव से कार्य - कारणभाव सम्बन्धका भेद है, तब तो बहुतसे वाच्यअर्थ हुए जाते हैं । एक कार्यकारणभाव इस शद करके अन्वय, व्यतिरेकरूप प्रमेय कैसे कहा जा सकता है ? यहां कोई यदि यों नियम करे कि श तो प्रयोग करनेवालेके अधीन होता है। नियोजन करनेवाला जिस शद्वका जिस प्रकार प्रयोग करता है । वह शद्ब उस प्रकारके अर्थको भले प्रकार कह देता है । इस कारण अनेक अर्थों में भी एक शद्बका सुना जाना विरुद्ध नहीं है तो भी वे दो अन्वय व्यतिरेक ही कार्यकारणभाव हुए ( हुआ ) ( ६ ) जिस कारणसे कि जानने योग्य किन्तु कारणसे पहिले न देखे गये फिर भी वर्त्तमानमें कार्यनामक पदार्थ के दर्शन होनेपर एक कारणपनसे मान लिये गये पदार्थको देखता हुआ और उस कारण के न देखनेपर कार्यको नहीं देखनेवाला मनुष्य " यह उससे उत्पन्न होता है । " इस बातको उपदेशक पुरुषोंके विना भी जान लेता है ( ७ ) तिस कारण दर्शन अदर्शन यानी इनके विषय स्वरूपभाव और अभावको छोडकर कार्यबुद्धि कुछ नहीं सम्भवती है यह इसका कार्य है । इत्यादि शद्वव्यवहार भी लाघव के लिये निविष्ट किया गया है । अन्यथा पदपर जनसमुदायको I इतनी लम्बी चौडी शद्वमाला कहनी पडेगी कि दर्शन, अदर्शनके, विषय भाव, अभावरूप अन्वय, व्यतिरेक इन विवक्षित पदार्थोंके हैं । इतना शब्द समूह न कहना पडे । इसलिये " यह इसका कार्य है । यह इसका कारण है । ऐसा शब्द बोल दिया जाता है । ( ८ ) अतः अन्वय, व्यतिरेकको छोडकर अन्य कोई कार्य कारणता नहीं है । फिर वह भाव, अभावसे क्यों साधी जाती है ? सम्बन्धवादी पुरुष उसके भाव अभावसे हेतु द्वारा जो कार्यपनेका ज्ञान होना वर्णन करते हैं, वह भी इस कारणका यह कार्य है और इस कार्यका यह कारण है । इस संकेतको ही विषय करती है । वस्तुभूत कार्यकारण भावको नहीं जताती है। जैसे कि साना [ गल कम्बल ] सींग, ककुद, [ ढांट ] पूंछके अन्तमे बालों का गुच्छा, इत्यादिक करके जैसे गौका ज्ञान कर लिया जाता है । यहां गौ और सासना आदिका कार्यकारणभाव तो नहीं है । ज्ञाप्यज्ञापक भाव भले ही होय । ( ९ ) जिससे कि कार्य नामक पदार्थके भवन होनेपर उस कारण होना ही कारण है । और कारण के होनेपर ही कार्यका होना कार्यत्व है । इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुपलम्भसे हेतुता, कार्यता, दोनों प्रसिद्ध हो रही हैं । (१०) तिस कारण भाव, अभाव,
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