Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिक
थोडी देरके लिये कल्पित सम्पूर्ण धर्मोंसे सहित मान लेते हैं । हां ! वस्तुभूत संपूर्ण धर्मोसे सहितपना तो वस्तु नहीं आपादन किया जा सकता है। क्योंकि वस्तुमें कल्पित हो रहा सम्पूर्ण धर्मोके रहित - पन स्वरूपका उस वस्तुभूत अखिल धर्मोसे सहितपने के साथ अविनाभाव नहीं हो रहा है । भावार्थ - जहां कल्पित हो रहा धर्मोका अभाव है, वहां वास्तविक धर्म ठहर सकते हैं, ऐसा नियम नहीं | हम बौद्ध वस्तुमें कल्पित धर्मोको मानते हैं । अतः वास्तविक सम्पूर्ण धर्मोका अभाव स्वयं हो जाता है । उस वास्तविक अखिल धर्मोकी सहितताके विना भी कल्पित धर्मसहितपनेकी सिद्धि हो सकती है । अन्ततो गत्वा वस्तुमें सम्पूर्ण धर्मोका स्वभावरहितपन सध जाता है, इस प्रकार कोई वैभाषिक बौद्ध कह रहे हैं। अब आचार्य कहते हैं कि उन बौद्धों के भी विचारनेवाले मानसिक अभिप्राय बढे हुए मोहके प्रभावसे ढक गये हैं। देखो तो सही उन्होंने वस्तुकी परमार्थभूत सकल धर्मोसे तदात्मकताको स्वीकार करनेपर भी फिर उसका असम्भव कह दिया है | मानकर मुकर जाना मनस्वी पुरुषोंका कार्य नहीं है । कारण कि कल्पित सम्पूर्ण धर्मोसे रहितपनेको वस्तुका स्वरूप कहनेवाले बौद्ध करके वस्तुभूत सकल धर्मोकी सहितता तो स्वयं स्वीकृत कर ली ही हो गयी समझ लेनी चाहिये । क्योंकि वह कल्पित धर्मरहितपना वास्तविक धर्मोकी सहितताके साथ व्याप्ति रखता हैं। उसके बिना नहीं हो सकता है । जैसे कि नलीमेंसे जलके निकाल लेनेपर उस स्थानको वायु घेर लेती है वैसे ही कल्पितधर्मोसे रहित कहनेपर ही उसी समय वस्तुमें वास्तविकधर्म सहितता आ धमकती है ।
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कल्पनापोढं प्रत्यक्षमित्यत्र कल्पनाकाररहितत्वस्य वस्तुभूताकारनान्तरीयकत्वेन प्रत्यक्षे तद्वचनात्तत्सिद्धिवत् ।
प्रत्यक्षज्ञान कल्पनासे रहित है, निर्विकल्पक है । इस प्रकार यहां प्रत्यक्षके लक्षणमें कल्पनारूप आकारोंसे रहितपनेका वास्तविक आकारोंके साथ अविनाभावपन होनेसे प्रत्यक्ष ज्ञानमें उस कल्पनापोढ शद्धसे जैसे उन कल्पनारूप आकारोंकी सिद्धि हो जाती है, वैसे ही धर्मरहितपना कहने से वस्तु में धर्मसहितपनेकी सिद्धि हो जाती है । यह कारिकामें कहे हुए दाष्टन्तिका दृष्टान्त है, कल्पनारहितपन भी तो एक कल्पना है ।
तथा कल्पनाकाररहितत्वस्य वचनाद्वस्तुभूताकारसिद्धिर्न प्रत्यक्षे स्वीकृतैवेति चेत्, तत्किमिदानीं सकलाकाररहितत्वमस्तु तस्य संविदाकारमात्रत्वात्तस्वतस्तथापि नेति चेत् कथं न वस्तुभूताकारसिद्धिः । न हि संविदाकारो वस्तुभूतो न भवति संविदद्वैतस्याप्यभावप्रसंगात् । ततः कल्पितत्वेन निःशेषधर्माणां नैरात्म्यं यदि वस्तुनः स्वरूपं तदा स्वरूप संसिद्धिः यस्मादन्यथा वस्तुभूतत्वेनाखिलधर्मयुक्तता तस्य सिद्धेति व्याख्या प्रेयसी ।
tad a fae प्रकार कल्पनास्वरूप आकारोंसे रहितपनेका वचन कर देनेसे हमने प्रत्यक्ष ज्ञानमें वास्तविक आकारोंकी सिद्धि तो नहीं स्वीकार की है, ऐसा कहनेपर तो हम कहते हैं