Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्यलोकवार्तिके
. बौद्धोंका अनुभव है कि सबसे पहिले विचारा जाय तो नहीं सिद्ध हुए दोनों स्व और स्वामीका कैसे भी सम्बन्ध नहीं होता है। जैसे कि खरहाके सींग और घोडेके सींगोंका असिद्ध होनेके कारण कोई सम्बन्ध नहीं है, तथा एक सिद्ध और दूसरे असिद्ध पदार्थका भी सम्बन्ध नहीं होता है । जैसे कि विद्यमान बन्ध्या स्त्री और अविद्यमान उसके पुत्रका कोई जन्य-जननी सम्बन्ध नहीं है । तथा जो दो पदार्थ परिपूर्ण होकर निष्पन्न हो चुके हैं, उनका तो परतन्त्रता न होनेके कारण ही असंबंध ही है । जो स्वयं पूरा नहीं बना है या बननेमें कुछ त्रुटि हो रही है, वह पर की अधीनताको रखता है, किन्तु सांग सिद्ध हो चुके पदार्थको दूसरेकी आवश्यकता नहीं है । अन्यथा यानी सिद्ध पदार्थ भी यदि पराधीन होने लगेंगे तो अतिप्रसंग हो जायगा । बने बनाये पदार्थ भी कर्त्तव्यकोटिमें आजायगे । आकाश या मुक्तजीव भी पराधीन हो जायंगे । किन्तु कृतका तो पुनः करण नहीं होता है । किसी स्वरूपसे सिद्ध हुए और किसी दूसरे रूपसे नहीं सिद्ध हुए पदार्थको यदि परतन्त्र माना जायगा तो हम बौद्ध कहेंगे कि सिद्ध अंशमें परतन्त्रतारूप सम्बन्ध कहना यह भी झूठ है। क्योंकि सिद्ध, असिद्ध, इन दोनों पक्षमें होनेवाले दोषोंका प्रसंग होता है। हम बौद्ध प्रथम ही कह चुके हैं कि सिद्धपदार्थको पराधीनताकी आवश्यकता नहीं है । और असतस्वरूप असिद्ध अंश भी पराधीन क्या होगा ? जो है ही नहीं, वह क्या तो दूसरोंके अधीन होगा और क्या अपने अधीन होगा ? "नंगा पुरुष क्या धोवे ? और क्या निचोडे"। दूसरी बात यह है कि पदार्थमें बनगयापन और नहीं बनगयापन ये विरुद्ध दो स्वरूप एकसमय नहीं हो सकते हैं। क्योंकि इसमें पूर्वापर कथनको या परस्पर उद्देश्यविधेय अंशको व्याघात करनेवाला प्रतीघातदोष
आता है । जो निष्पन्न है, वह अनिष्पन्न नहीं है और जो अनिष्पन्न है, वह निष्पन्न नहीं है। तिस कारण वास्तवरूपसे विचारा जाय तो सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है । वही हमारे बौद्ध ग्रन्थोंमें कहा है कि परतन्त्रता होनेपर अन्य मतोंके अनुसार संबन्ध हुआ करता है। किन्तु पूर्णाग सिद्ध हो चुके पदार्थोंमें पराधीनता क्या है ? यानी कुछ नहीं, तिस कारण सम्पूर्ण भावोंका परमार्थपनेसे कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार सामान्यरूपसे भी सम्बन्धोंका अभाव सिद्ध हो जानेपर कोई भी किसीका स्वामी नहीं बन पाता है, जब कि आधार आवेय, जन्यजनक वाच्यवाचक आदि कोई भी सम्बन्ध नहीं बना तो भला विचारा अकेला स्वस्वामिसम्बन्ध कहां रहा ? सामान्य ही नहीं रहा तो विशेषकी स्थिती कैसे बन सकती है ? जिससे कि आप जैनोंके सूत्र अनुसार पदार्थोका स्वामीपन जानने योग्य हो सके । इस प्रकार कोई एक बौद्ध कह रहे हैं।
तथा स्याद्वादसंबंधो भावानां परमार्थतः ।
खातन्त्र्यात् किं नु देशादिनियमोद्भतिरीक्ष्यते ॥ ११॥ अब आचार्य कहते हैं कि तिस प्रकार कहने पर तो स्याद्वाद सिद्धान्तके अनुसार पदार्थीका