Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तरवार्य लोक्वार्तिके
क्या पदार्थ है ? आप बौद्धोंके यहां एकत्व परिणति न होनेके कारण सन्तान -समुदाय, सामान्य, साधर्म्य, आदि तो वस्तुभूत नहीं मानें गये है । ऐसी दशामें आपका कल्पनासे गढा गया समुदाय क्या पडता है ? बताओ ! ।
साधारणार्थक्रियानियताः प्रविभागरहिता रूपादय इति चेत् कथं प्रविभागरहितत्वमेकत्वपरिणामाभावे तेषामुपपद्यतेऽतिप्रसंगात् । सांवृत्यैकत्वपरिणामेनेति चेन्न, तस्य प्रतिविभागाभावहेतुत्वायोगात् । प्रविभागाभावोऽपि तेषां सांवृत इति चेन्न हि तत्त्वतः प्रविभक्तो एवं रूपादयः समुदाय इत्यापन्नम् । न चैवम् । केषाञ्चित्समुदायेतरव्यवस्था साधारणार्थक्रियानियतत्वेतराभ्यां सोपपन्नेति चायुक्तं, सूर्याम्बुजयोरपि समुदायप्रसंगात् । तयोरम्बुजप्रबोधरव्योः साधारणार्थक्रियानियतत्वात् । ततो वास्तवमेव प्रविभागरहितसमुदायविशेषस्तेषामेकत्वाध्यवसाय हेतु रंगीकर्तव्यः । स चैकत्वपरिणामं तात्त्विकमन्तरेण न घटत इति सोऽपि प्रतिपत्तव्य एव स चैक द्रव्यमिति सिद्धम् । स्वगुणपर्यायाणां समुदायस्कन्ध इति वचनात् ।
सामान्यरूपसे एकसी हो रही अर्थक्रिया के करनेमें नियत और प्रकट हुए, विभागसे रहितरूप आदिकों को यदि समुदाय कहोगे, तब तो हम जैन कहते हैं कि उन रूप आदिकोंका परस्पर एकम एक हुए परिणामके विना विभागसे रहितपना कैसे सिद्ध हो सकेगा ? यों तो अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात् एकत्व परिणामके विना भी विभागरहितपना हो जाय तो पानी और चांदी निर्मित रुपयेका तथा आकाश, आत्मा, आदिका भी विभाग रहितपना होकर समुदाय बन जाओ ! जैसे कि क्षीर, नीरका अथवा दूध बूरेका समुदाय बन जाता है । यदि आप बौद्ध कल्पनारूप झूठे स्वरूपसे एकत्व परिणाम करके रूप आदिकोंका अविभागीपन मानोगे, सो तो ठीक नहीं। क्योंकि उस कल्पना किये गये साम्वृत एकत्व परिणामको प्रकृष्ट विभाTh अभावका हेतुपना नहीं है । यदि उन रूप आदिकोंका अविभागीपन भी कल्पित ही माना जाय, ऐसा माननेपर तो वास्तविकरूपसे अविभागयुक्त नहीं हुए ही या प्रकर्षता से विभक्त हो गये ही रूप आदिक समुदाय बन गये यह कथन प्राप्त हुआ । किन्तु इस प्रकार अतत्को तत् कहकर असत्य कथन करना तो युक्त नहीं है । तथा बौद्धोंका किन्हीं ही पदार्थोंकी सामान्य अर्थकी क्रियामें नियतपन और सामान्यरूपसे अर्थक्रियामें नहीं नियतपनसे समुदाय और पृथग्भावकी वह व्यवस्था करना बन बैठेगा, यह कथन भी अयुक्त है । क्योंकि यों तो सूर्य और कमलके भी समुदाय हो जानेका प्रसंग होगा । उन सूर्य और कमलको कमलका खिल जाना और रविका विकास होना इनमें सामान्यरूप से रहनेवाली विकासरूप अर्थक्रिया करनेमें नियतपना हेतु विद्यमान है । त कारण वास्तविक ही विभाग रहित स्वरूप विशेष समुदाय उन रूप आदिकके एकपनको निर्णय करनेका हेतु स्वीकार करना चाहिये और वह वास्तविक समुदाय तो परमार्थभूत एकत्व परिणामके
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