Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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. तत्वार्यकोकवार्तिक
रेकेणानुपपद्यमानत्वेन प्रसिद्धः। सैव चतुर्विधा प्रत्यासत्तिः स्फुटः संबन्धो बाधकामावादिति न सम्बन्धाभावो व्यवतिष्ठते ।
कतिपय पदार्थोकी भावप्रत्यासत्ति तो इस प्रकार है जैसे कि गौ और रोझमें सादृश्य सम्बन्ध है। उन दोनोंमेंसे एकके जिस प्रकार संस्थान रचना आदि परिणाम हैं वैसे ही शेष बचे हुयेके सन्निवेश आदि हैं तथा केवली भगवान् और सिद्धपरमेष्ठीमें परस्पर भावप्रत्यासत्ति है । जैसे ही अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, आदिक भाव तेरहवें या चौदहवें गुणस्थानमें रहनेवाले केवली महाराजके हैं। वैसे ही उन दोमेंसे बचे हुये दूसरे. सिद्ध भगवान्के हैं । या सिद्ध परमात्माके जैसे अनन्तज्ञान आदि भाव हैं। वैसे ही अरहन्त भगवान्के हैं। यह अच्छी तरह प्रतीत हो रहा है । दूसरे सम्बंधकी यहां सम्भावना नहीं है । न्यायतीर्थ या न्यायाचार्य परीक्षाको उत्तीर्ण करनेवाले कई छात्रोंमें परस्पर भावप्रत्यासत्ति है । उनके व्युत्पत्तिरूप भाव एकसे हैं। किन्हीं दो पदार्थोंमें यदि अनेक प्रत्यासत्तिरूप सम्बन्ध हो जाय तो भी कोई अनिष्ट नहीं है । अपने नियत हो रहे द्रव्य आदिकोंसे संपूर्ण पदाथोकी उत्पत्ति होती है । अतः द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, इन चारों सम्बन्धोंके अतिरिक्त अन्य संबन्धोंकी असिद्धि होनेके कारण द्रव्य आदि चार सम्बन्धोंकी ही प्रसिद्धि है। अर्थात् सम्यग्दर्शन
और ज्ञानकी द्रव्यप्रत्यासत्ति है तथा कालप्रत्यासत्ति भी है और एक आत्मामें रहनेके कारण क्षेत्रप्रत्यासत्ति भी हो सकती है । क्षायोपशमिक या क्षायिकभाव होनेसे भावप्रत्यासत्ति भी सम्भव है। जैसे कि भाईपनेके साथ मित्रता सम्बन्ध या गुरुशिष्य सम्बन्ध भी घटित हो जाता है। प्रकरणमें वह चार प्रकारकी ही प्रत्यासत्ति स्फुट होकर सम्बंध है । कोई बाधक प्रमाण नहीं है । इस कारण बौद्धोंका माना गया सम्बन्धाभाव व्यवस्थित नहीं होता है। यों वस्तुभूत सम्बन्ध पदार्थकी सिद्धि कर दी गयी है।
ननु च द्रव्यप्रत्यासत्तिरेकेन द्रव्येण कयोश्चित्पर्याययोः क्रमभुवोः सडमुवोर्वा तादात्म्यं तच्च रूपश्लेषः स च द्वित्वे सति सम्बन्धिनोरयुक्त एव विरोधात् तयोरेक्येऽपि न सम्बन्धः सम्बन्धिनोरभावे तस्याघटनात् द्विष्ठत्वादन्यथातिप्रसंगात् । नैरन्तर्य तयो रूपश्लेष इत्यप्ययुक्तं,तस्यान्तराभावरूपत्वे तात्त्विकत्वायोगात प्राप्तिरूपत्वेऽपि प्राप्तः। परमार्थतः कात्स्न्र्यैकदेशाभ्यामसम्भवाद्गत्यन्तराभावात् । कल्पितस्य तु रूपश्लेषस्यापतिषेधात् न स ताविकः सम्बन्धोस्ति प्रकृतिभिन्नानां स्वखभावव्यवस्थितेः, अन्यथा सान्तरत्वस्य संबन्धप्रसंगादिति केचित् । तदुक्तम्-" रूपश्लेषो हि संबन्धो द्वित्वे स च कथं भवेत् । तस्मात् प्रकृतिभिन्नानां संबन्धो नास्ति तत्त्वतः" इति।।
___ बौद्ध अपने मतको पुष्ट करनेके लिए अनुनय [ खुशामद ] करते हैं कि आप जैनोंकी मानी गयी द्रव्यप्रत्यासत्ति तो एक द्रव्यके साथ क्रमसे होनेवाली किन्ही विवक्षित अनुभव, स्मरण, रूप पर्यायोंका अथवा साथ रहनेवाली रूप, रस, आदि गुणस्वरूप पर्यायोंका तदात्मक हो जाता