Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यलोकवार्तिके
सकता है । स्वयंको ज्ञप्ति नहीं हो सकती है । अथवा दूसरोंके स्वीकारसे दूसरा विद्वान् श्रोताओंको कहकर समझा सकता है, तुम नहीं।
सर्वथा संबंधाभावानाशक्य एव प्रत्यक्षत इति चेन्न, तस्य स्वांशमात्रपर्यवसानात् । न कश्चित्केनचित् कथञ्चित् कदाचित् सम्बन्ध इतीयतो व्यापारान् कर्तुमसमर्थत्वादन्यथा सर्वज्ञत्वापत्तेः । सर्वार्थानां साक्षात्करणमंतरेण संबन्धाभावस्य तेन प्रतिपत्तुमशक्तेः । केषाचिदर्थानां स्वातन्त्र्यमसम्बन्धेन व्याप्तं सर्वोपसंहारेण प्रतिपद्य ततोऽन्येषामसम्बन्धपतिपत्तिरानुमानिकी स्यादिति चेत् तत्तर्हि खातन्त्रमर्थानां न तावदसिद्धानां, सिद्धानां तु. खातन्त्र्यात्सम्बन्धाभावे तत्त्वतः किन्नु देशादिनियमेनोद्भवो दृश्यते तस्य पारतन्त्र्येण व्याप्तत्वात् । न हि स्वतन्त्रोऽर्थः सर्वनिरपेक्षतया नियतदेशकालद्रव्यभावजन्मास्ति न चाजन्मा सर्वयार्थक्रियासमर्थः स्वातन्त्रस्याकारणात् । प्रत्यासत्तिविशेषाद्देशादिभिस्तन्नियतोत्पत्तिरर्थस्य स्यादिति चेत्, स एव प्रत्यासत्तिविशेषः सम्बन्धः पारमार्थिका सिद्ध इत्याह
___ बौद्ध कहते हैं कि सभी प्रकारोंसे सम्बन्ध न होनेके कारण दूसरा भी समझानेके लिये शक्य नहीं ही है । वस्तुतः प्रत्यक्षके द्वारा ही पदार्थोके संबन्धका अभाव जाना जा रहा है । अतः स्वको प्रतिपत्ति होना कठिन नहीं है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि वह प्रत्यक्षज्ञान तो अपने केवल नियत अंशको जाननेमें ही चरितार्थ होकर नष्ट हो जाता है। प्रत्यक्षज्ञान विचार करनेवाला नहीं माना गया है । जगत्का कोई भी पदार्थ किसी भी पदार्थके साथ किसी ढंगसे कभी सम्बन्ध नहीं रखता है । इस प्रकार इतने व्यापारोंको करनेके लिये प्रत्यक्षज्ञान समर्थ नहीं है। अन्यथा सर्वज्ञपनेका प्रसंग होता है। क्योंकि संपूर्ण अर्थोका प्रत्यक्ष किये विना संबंधाभावको उस प्रत्यक्षके द्वारा जाननेके लिये शक्ति नहीं है । सर्व देश और सर्व कालका उपसंहार करनेवाली व्याप्तिको प्रत्यक्ष जाननेवाला सर्वज्ञ ही हो सकता है। पुनः बौद्ध कहते हैं कि किन्हीं विवक्षित अर्थोके स्वतन्त्रपनको सम्बन्धाभाव के साथ व्याप्ति रखते हुए जानकर सबको घेर करके साध्य साधनकी व्याप्तिको बनाकर उससे भिन्न पदार्थोकी स्वतन्त्रतारूप हेतुसे सम्बन्धाभावरूप साध्यकी अनुमान द्वारा प्रतिपत्ति हो सकेगी । अतः प्रत्यक्षको सर्वज्ञपनेका प्रसंग टल जाता है तथा विचारक होनेके कारण अनुमानज्ञान इतने व्यापारोंको भी कर सकता है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम कटाक्ष करेंगे कि अनुमानसे ब्याप्तिको जाननेमें भी अनवस्था दोष आता है । क्योंकि व्याप्तिको जाननेवाले अनुमानका उत्थान करनेमें भी पुनः व्याप्तिको जाननेकी आवश्यकता है। दूसरी बात यह है कि सबसे पहिले तुम यह बताओ कि वह स्वतंत्रता असिद्ध पदार्थोकी तो हो नहीं सकती है । जो विचारा अभीतक असिद्ध है, वह भला स्वतन्त्र कहां ? और सिद्धपदार्थोका तो स्वतंत्र होनेके कारण यदि सम्बन्ध न माना जायगा तो परमार्थरूपसे देश, काल, आदिके नियमसे पदार्थोकी