Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
व्यभिचार नहीं है । अन्यथा यानी एकधर्मको भी अन्य धर्मोसे सहित कर वस्तुपना माना जायगा तो उन धर्मो भी अन्य धर्मोसे सहितपना होगा तथा उन तीसरे धर्मोको भी चौथे प्रकारके धर्मोसे सहितपना प्राप्त होगा । इस प्रकार आकांक्षा के बढते रहने से वस्तुके अनवस्थादोषका प्रसंग होता है । किन्तु जैनसिद्धान्त में . धर्म, धर्मीका समुदायरूप एक अखण्ड वस्तु मानी गयी हैं । तिस कारण इस उक्त प्रकारसे वस्तु में अपने स्वरूपका सभी प्रकारसे निराकरण करनेके लिये बौद्धोंकी सामर्थ्य न होनेके कारण हमने पहिले बहुत अच्छा कहा था कि वस्तुका शद्वके द्वारा अर्थस्वरूपका अवधारण करनारूप निर्देशको प्राप्त होनापन जानने योग्य है । यहांतक निर्देशका विचार हो चुका अब स्वामित्वका निर्णय करते हैं ।
न कश्चित्कस्यचित्स्वामी संबन्धाभावतजसा । पारतंत्र्यविहीनत्वात् सिद्धस्येत्यपरे विदुः ॥ १० ॥
बौद्ध कहते हैं कि कोई भी पदार्थ किसीका स्वामी नहीं है। क्योंकि, तत्त्वार्थरूपसे विचारा जाय तो पदार्थोंका सम्बन्ध ही नहीं बनता है । वैराग्यभावनावाले साधु भी यही भावना भाते हैं कि कोई किसीका नहीं है । " हम न किसीके कोई न हमारा " देवदत्तका घोडा मोल ले लेने पर यज्ञदत्तका हो जाता है । चोर द्वारा चोरी कर लेनेपर चोरका हो जाता है । क्रय विक्रयके चलनका रुपया न जाने कहांका कहां जाकर किस किसको अपना स्वामी बनाता फिरता है । वस्तुभूत पदार्थका बातचीत कर देनेसे परिवर्तन नहीं हो जाता है। जीवकी बुद्धि सगाई कर देनेसे पुद्गलकी नहीं हो जाती है और न पुद्गलकी गन्धका स्वामी जीव पदार्थ होता है । इससे सिद्ध है कि घोडे या रुपयेका स्वामीपन कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है । कल्पना कैसी भी गढ लो ! स्वामीको सेवaat और सेवकको स्वामीकी पराधीनता होनेपर संबन्ध व्यवस्था मानी गयी है । किन्तु जो पदार्थ स्वकीय कारणोंद्वारा पहिलेसे ही बनकर पूर्णरूपसे सिद्ध हो चुका है, वह परतन्त्रता से रहित होनेके कारण किसीका मी सम्बन्धी नहीं हो सकता है । इस प्रकार कोई दूसरे बौद्ध समझ रहे हैं ।
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सम्बन्धो हि न तावदसिद्धयोः स्वस्वामिनोः शशाश्वविषाणवत् । नापि सिद्धासिद्ध योस्तत् बन्ध्यापुत्रवत् । सिद्धयोस्तु पारतन्त्र्याभावादेवासम्बन्ध एव अन्यथातिप्रसंगात् । केनचिद्रूपेण सिद्धस्यासिद्धस्य च पारतन्त्र्ये सिद्धे परतन्त्रसम्बन्ध इत्यपि मिथ्या, पक्षद्वयभा विदोषानुषंगात् । न चैकस्य निष्पन्नानिष्पन्ने रूपे स्तः प्रतीघातात् । तन्न तत्त्वतः सम्वन्धोऽ -स्तीति । तदुक्तम् - " पारतन्त्र्ये हि सम्बन्धे सिद्धे का परतन्त्रता । तस्मात्सर्वस्य भावस्य सम्बन्धो नास्ति तत्त्वतः ।। " इति सम्बंधमात्राभावे च सिद्धे सति न कश्चित्कस्यचित् स्वामी नाम यतः स्वामित्वमर्थानामधिगम्यं स्यादित्येके ।