Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
शेमें भले ही इनका विरोधाभाव भय मूलक होवे, किन्तु क्षमाशील मुनि महाराजके निकट या समयसरणमें इनका सख्यभाव है । यह बात केवल आगमाश्रित ही नहीं है । प्रत्युत युक्तिसिद्ध और अनुभव प्रसिद्ध भी है।
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कतिपय प्रमाणज्ञानोंमें भी अप्रमाणता अनुप्रविष्ट हो रही है और मिथ्याज्ञानों में भी प्रमाणपना घुस रहा है । श्रीसमन्तभद्राचार्यने ।
भावप्रमेयापेक्षायां, प्रमाणाभासनिह्नवः । बहिःप्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च 11
इस कारिकाद्वारा उक्त प्रामाण्य, अप्रामाण्यके अनेकान्तको पुष्ट किया है । स्त्रको जाननेमे सभी मिथ्याज्ञान प्रमाण हैं। झूठ बोलनेवाला यदि अपनेको झूठा कहे तो उतने अंशमें वह सच्चा है । ठूंठमें हुये पुरुष या स्थाणुके संशयज्ञानमें ठूंठमें हो रहे घोडा या हाथीके संशयज्ञानकी अपेक्षा प्रमाणताका विशेष अंश माना जायेगा । अधखुली आंखके पलक में स्वल्प अंगुली गाढनेपर एक चन्द्रमामें हुये दो चन्द्रमाके विपर्ययज्ञानमें लोटेको घोडा जाननेवाले विपर्ययज्ञानकी अपेक्षा प्रमाणपनका अंश अप्रमाणता के साथ अधिक माना जावेगा । परीक्षकोंको न्याय उचित बात स्वीकार कर लेना चाहिये । यह तो हुई मिथ्याज्ञानोंमें प्रमाणपनके साङ्कर्यकी बात ।
अब बहुतसे सर्वाङ्गरूपेण प्रसिद्ध हो रहे प्रमाणोंमें भी अप्रमाणपनकी झलख निरखिये ।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान अपने २ विषयोंमें एक देशसे अविसंवाद रखते हैं । अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान तो अपने नियत विषयोंमें पूर्णरूपेण सम्बादी हैं। हां ! केवलज्ञान सम्पूर्ण वस्तुओं को जाननेमें परिपूर्ण विशद है । इस कारण परिपूर्णरूपसे प्रमाणपनका अधिकारी है । इस प्रकार पांचों ज्ञानोंमें तीन ढंगसे प्रमाणपना प्रसिद्ध हो रहा है । भले ही केवलज्ञान सत्रको जानता है । फिर भी रसनाइन्द्रिय जनित प्रत्यक्षसे जैसे लड्डुके रसका अनुभव होता है, वैसा केवलज्ञानसे नहीं । केवलज्ञानकी विषयतासे इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षोंकी विषयता बाल बाल न्यारी बची हुई है ।
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जैन न्यायका यह अखण्ड सिद्धान्त है कि -" यावन्ति कार्याणि तावन्तः स्वभावभेदाः वस्तुनि सन्तिः " जितने भी छोटे बडे कार्य जिस अर्थसे होते हैं उतने वस्तुभूत स्वभाव उस पदार्थ में अनिवार्य विद्यमान हैं । मनः पर्यय और अवधिज्ञानमें भी देशघाति प्रकृतियोंका उदय कुछ बिगाड कर देता है । तभी तो " यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता 1 यह सिद्धान्त जागरूक हो रहा है । सफलप्रवृत्तिजनकत्व, निर्बाधत्व, समारोपविरोधकत्व, इनमें से कोई भी अविसंवाद जहां जैसा जितने परिमाण में घटित होगा वहां उतने परिमाण में प्रमाणपना माना जावेगा । प्रतिपत्ति, प्रवृत्ति, प्राप्तिकी एक अधिकरणता या प्रमाणान्तरोंकी प्रवृत्ति अथवा ज्ञेयमें अभीष्ट अर्थक्रियाकारित्व इन संवादोंसे भी प्रामाण्य व्यवस्थित हो रहा है । प्रायः मतिज्ञान, श्रुतज्ञानोंमें अप्रमाणपनकी पोल चल रही है । जिस ज्ञानमें जितनी पराधीनता होगी उतना ही वह मन्द होगा । चाक्षुष प्रत्यक्षको ही
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