Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
श्रुतज्ञानमें झलकायेगा। बात यह है कि एक छोटेसे श्रुतज्ञानमें चौगुनी, अठगुनी, बातें सच्ची, झूठी घुस बैठती है । महापुराणको सुनकर भरत और बाहुबलीके युद्धमें भी बहुतसी असद्भूत बातें जोडली जाती हैं । भले ही चक्रवर्तीका मुंह पश्चिमकी ओर हो, किन्तु श्रोताओंके ज्ञानमें पूर्व, दक्षिणकी ओर भी जाना जा चुका है। ऐसी कल्पित कितनी कितनी गलतियोंको भगवान् जिनसेनाचार्य कहांतक कंठोक्त कहकर सुधरवा सकेंगे।
सहारनपुरमें एक बत्तड आदमी है । उसको जरासा छेड देनेपर घंटोंतक कानोंको चैन नहीं लेने देता है। प्रत्येक शहरमें एक दो आदमी और प्रत्येक मुहल्ले में दो चार स्त्रियां ऐसी होती होंगी, जो बातें करती २ नहीं अघाती हैं । वे " तुम कहांसे आरहे हो" इतना प्रश्न करते ही अपना अत्यावश्यक कार्य छोडकर भी खाने, पीने, अदालत, सुनार, मकान आदिकी बातें बनाकर आकाश, पातालीय कुलावे जोडकर दिमाग खाली कर लेते हैं ।
एक दिन उन गप्पाष्टकी महाशयने मुझसे जयजिनेन्द्र किया । मैंने शिष्टतावश उनसे, आप अच्छे हैं ? ऐसा प्रश्न कर दिया । मेरे इतने कहनेपर ही उन्होंने अपना व्याख्यान शुरू कर दिया। ऐसे जीव अपना हर्जा उठाकर या सुननेवालेको कुछ बूंस देकर भी अपनी बातें सुनानेकी खुजली मिटानेके लिये उत्सुक रहा करते हैं । मुझको विद्यालय जानेकी जल्दी पड रही थी, किन्तु बाबदूक महाशयकी व्यर्थाव्यर्थ वाग्धारा कथमपि नहीं टूटी । वही एक दूसरे मेरे मिलनेवालेने चुपकेसे कहा कि आपने कहां बरॊके छत्तेपर हाथ डाल दिया, वह तो सबका कपार चाट जाता है । जल्दी मचानेपर भी मुझे उस दिन पौन घण्टेका विलम्ब हो गया। यहां मुझे यही कहना है कियही गपोडबाजीकी इल्लत हमारे अनेक शब्दजन्य शाबोधोंमें भरी हुई हैं। एक शब्द सुनते ही शाद्वबोध करनेवाला न जाने कितने लम्बे चौडे संकल्प विकल्पोंकी डांकगाडी छोड देता है, जिनके कि विशेष्य, विशेषण बहुभाग झूठे हैं।
पदार्थके अन्यून और अनतिरिक्त ज्ञानको सम्यग्ज्ञान माना गया है। तभी तो दो अंगुलीको एक समझना और एक चन्द्रमाको दो समझना विपर्यय नामका मिथ्याज्ञान है । कहे हुयेसे अधिकको याथातथ्यरहित जान लेना सम्यग्ज्ञान नहीं है।
तीर्थकर भगवान्के जन्मकल्याणक अवसरपर इन्द्र आता है । पतितपावन भगवान्को सुमेरुपर्वतपर ले जाता है । इस कथनकी कितने आकार प्रकारकी सूरतें, मूर्ते बनाकर श्रोताजन श्रुतज्ञानकर बैठे हैं। इसके लिखनेके लिये बीसों पत्र चाहिये । भले ही सुमेरुपर्वतका चित्र खींचना त्रिलोकसारसे विरुद्ध पड जाय । इसकी कोई परवा नहीं है । जैसे पहिले कोई पहाड या जलाशय देखा सुना है, उससे मिलती, जुलती, आकृति गढली जाती है। फिर विचारे संशय, विपर्यय अनध्यवसाय ज्ञानोंको ही क्यों मिथ्यापनकी गाली सुनाई जा रही है। कतिपय सत्यज्ञानोंमें भी तो कलियुगी बाबाजियोंके समान पोलें चल रही हैं । उक्त संपूर्ण बातोंका निर्णय श्रीविद्यानन्द स्वामीने " तत्प्रमाणे " इस सूत्रके भाष्यमें बहुत अच्छा कह दिया है। .