Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामाणिः
५०३
यों निषाद, ऋषभ आदिके मन्द, मन्दतर, मन्दतम भेदोंकी विवक्षासे सैकडों भेद हो जाते हैं । बीच बीचमें श्वांस लेनेसे भी शब्दके उच्चारणमें अन्तर पड जाता है। कई दिनोंतक भी श्वासोच्छ्वास नहीं लेनेवाले देवोंके यहां तो अवर्णके हजारों भेद हो जाते हैं। बात यही कहना है कि इन कार्योके सम्पादनकी न्यारी न्यारी शक्तिया तालु आदि में माननी पडेंगी । खेतकी एक डली मिट्टी लाखों वनस्पतियोंकी उपजानेकी शक्ति रखती है। यों अनेकान्तके परिवारका कुछ दर्शन हो जाता है,
छः स्थानों में पड़ी हुई हानि, वृद्धि अनुसार अनन्तानंत अविभाग प्रतिच्छेदोंके अविष्वग्भाव समुदायको एक पर्याय कहते हैं । कालत्रयवर्ती अनन्तानंतपर्यायोंका ऊर्ध्वाश समुदाय एक गुण है। अनन्तानंत गुणोंका तादात्मक तिर्यगंश पिंड हो रहा एक द्रव्य है । व्यक्तिरूपसे अनन्तानंत द्रव्योंका संयुक्तसंयोगाल्पीयस्त्व नामका समूह लोक है । क्षेत्रप्रत्यासत्ति अनुसार एक अलोकाकाशमें अनन्तानंत लोक समान टुकडे हो सकते हैं।
एक बात यह और कहनी है कि " परिस्थितियोंके वश पडा हुआ कोई धर्म अन्तरङ्ग, बहिरङ्ग कारणोंके अनुसार विलक्षण स्वभावोंको धार लेता है। अखंड ब्रह्मचारिणी सीताका ब्रह्मचर्य उसके नौ भङ्गों द्वारा पालन किये जानेसे अथवा सत्य, अचौर्य, आदि धर्मोके सहचारसे संख्यात गुणा बढ गया था। एक जीव केवल ब्रह्मचारी है, दूसरा ब्रह्मचारी और सत्यव्रती है । और तीसरा व्यक्ति ब्रह्मचारी, सत्यव्रती हो रहा, अनेक आपत्तियोंके पडनेपर भी अपने धर्मसे नहीं विचलित होता है। इनके उत्तरोत्तर प्रकृष्ट ब्रह्मचर्य गुणोंमें आनुषंगिक अनेक धर्मोका सद्भाव मानना पडेगा।
___जन्म कल्याणकके समय इन्द्र भगवान्को देखता है और हजार नेत्रसे देखनेपर भी परितृप्त नहीं होता है । यहां भी भावोंमें स्वभाव और उन स्वभावोंमें स्वभावान्तर तथा स्वभावान्तरोंमें अनेक न्यारे न्यारे धर्म ओत, प्रोत प्रविष्ट हो रहे हैं। इनमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य पाये जाते हैं। ___तात्पर्य यह है कि " जो जिस विषयका रीता ( दरिद्री ) होता है वह उस पदार्थको अनन्य चित्त होकर घण्टों निरखता रहता है । अज्ञ श्रोता विचक्षण विद्वान्के मुंहकी ओर ताकता रह जाता है । पुत्ररहित सेठानी पुत्रसहित पिसनहारीकी ओर ढूंकती रहती है । निर्धन मनुष्य सेठको एक टक लगाकर देखता रहता है । इसी प्रकार नीरोगको रोगी, रण्डुवा विवाहितको, प्रजा राजाको, विधवा स्त्री सुहागिनको, निर्बल दांतवाला या पोपला आदमी दृढ दांतवालेको, तत्परता पूर्वक निरखते रहते हैं । प्रथम तो इन्द्रके पुत्र ही नहीं है, दूसरे भगवान्की वात्सल्यमय बालर्तिमें वैराग्य छटा ओत पोत उदृकित हो रही है। जिन तीर्थंकर महाराजसे असंख्यात जीवोंका उद्धार होता है, एक भवतारी और वैराग्यका परम अभिलाषुक सम्यग्दृष्टि सौधर्म इन्द्र, उस शान्त, वैराग्य, वात्सल्य, लावण्यसे भरपूर हो रहे जिनेन्द्रमुखको निरखता रहता है । आत्माके भाव मुखपर अवश्य आते हैं, " वक्त्रं वक्ति हि मानसम् ” । मुझे यह कहना है कि “ज्ञानत्रय और तीर्थकरत्वसे अविनाभाव रखनेवाली अनेक पुण्यप्रकृतिओंका उदय, परमोत्कृष्ट शारीरिक शक्ति, नरकोंमें भी