Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थलोकवार्तिके
रूपाभाव अथवा अनेकरूप या अनेकरूपाभाव इनको मानो चाहे न मानो । वस्तुमें अनेक धर्मोकी सिद्धि अनायास हो जाती है।
- ननु चाध्यक्षे सकलधर्मरहिस्य स्वलक्षणस्य प्रतिभासनात् न तत्रैकमनेकं वा रूपं परस्परं सापेक्ष निरपेक्षं वा तद्रहितत्वं वा प्रतिभाति कल्पनारोपितस्य तु तथा प्रतिभासमानस्य तावतोसत्त्वात् । संवृत्त्या तत्सद्भावोऽभीष्ट एव । तथा चैकरूपतदभावयोरनेकरूपवदभावयोश्चैकानेकरूपयोः परस्परव्यवच्छेदस्वभावयोरेकतरस्य प्रतिषेधेऽन्यतरस्य विधेरवश्यंभावेऽपि न किञ्चिविरुद्धं, भावाभावोभयव्यवहारस्यानादि शद्धविकल्पवासनोद्भूतविकल्पपारीनष्ठितस्य शद्धार्थतयोपगमात् । तदुक्तम्-" अनादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठितः, शदार्थस्त्रिविधो धर्मो भावाभावोभयाश्रयः"। इति केचित् ।
___ बौद्धोंकी ओरसे पुनः अनुनय सहित होकर पूर्वपक्ष है कि प्रत्यक्षज्ञानमें सम्पूर्ण धर्मोसे रहित वस्तुभूत स्वलक्षणका प्रतिभास हो रहा है । उस प्रत्यक्षमें एकरूप अनेकरूप परस्परमें अपेक्षा रखते हुए अथवा नहीं रखते हुए या उनसे रहितपना धर्म ये कभी नहीं प्रतीत होते हैं । हां! झूठी कल्पनासे तिस प्रकार आरोपे गये स्वरूपोंका प्रतिभास तो भले ही होय. कल्पित धर्म तो वास्तविकरूपसे असत् हैं, अतः व्यवहारसे उन कल्पित धर्मोका सद्भाव हम बौद्धोंको अभीष्ट ही है और तिस प्रकार होनेपर अन्योन्यमें एक दूसरेका व्यवच्छेद करनारूप स्वभाववाले एकरूप और उसके अभाव एकरूपाभाव तथा अनेकरूप और उसके अभाव अनेकरूपाभाव जो कि एकरूप और अनेकरूपस्वरूप हैं। दोनोंमेंसे एकका निषेध करनेपर बचे हुए दूसरेकी विधिके अवश्य हो जानेपर भी कुछ विरुद्ध नहीं पडता है । पत्रमें चित्रित किये हुए सिंह और गायका या नकुल और सर्पका कोई झगडा नहीं है। भले ही सिंहके सिरपर पैर रखकर हिरण खडा हो जाय । कोई अडचन नहीं पडती । मनमानी घरू कल्पनाओंको कौन रोकने बैठा है ? भाव अभाव और उभयरूपसे हो रहे व्यवहार तो अनादिकालसे लगी हुयीं शद्ब बुलानेवाली और विकल्पज्ञान बनानेवाली वासनाओंसे उत्पन्न हुए विकल्पोंमें स्थित हो रहे हैं। उनके व्यवहारको हमने शद्बका वाच्यार्थपनेसे स्वीकार किया है, वास्तविकरूपसे नहीं। वही हमारे ग्रन्थमें कहा है कि भाव, अभाव, और उभयका आश्रय लेकर गढ लिया गया तीन प्रकारका धर्म ही शद्वका वाच्यार्थ है । जो कि आत्मामें बीजाङ्कुर न्याय अनुसार अनादिकालसे लगे हुए मिथ्यासंस्कारोंसे उत्पन्न हो चुके झूठे विकल्पज्ञानोंमें विषयभूत होकर स्थित हो रहा है । इस प्रकार कोई बौद्ध कह रहे हैं।
तेऽपि नानवद्यवचसः सुखनीलादीनामपि रूपाणां कल्पितप्रसंगात् । स्पष्टमवभासमानत्वान्न तेषां कल्पितत्वमिति चेन्न, स्वभावभासिभिरनेकान्तात् । न हि चैषामविकल्पितत्वं मानसविभ्रमात्मना स्वमस्योपगमात् तस्य करणविभ्रमात्मनोपगमे वा कथमिन्द्रिय