Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामाणिः
कर सकेंगे ! वे तो उस अभावकी तुच्छरूपताका स्वयं खण्डन करते हुए दूसरे वैशेषिक द्वारा आरोपण की गयी या मीमांसकद्वारा शंकाको प्राप्त हुयी तुच्छरूपताका अनुवाद मात्र कर देते है। जैसे कि कोई सत्यवती सज्जन किसीके असत्य भाषणका अनुवाद कर देते हैं, इस बातको हम बहुलतासे पूर्वमें कह चुके हैं।
न चात्यन्तासम्भविनो रूपस्य वस्तुन्यारोपितस्य केनचिदाशंकितस्य चातुच्छादेः सर्वेशद्वानामन्यव्यवच्छेदविषयत्वमसंजनं प्रायः प्रतीतिविरोधात् । कथमन्यथा कस्यचित्सत्यक्षस्य नीलविषयत्वे सर्वप्रत्यक्षाणां नीलविषयत्वप्रसंजनं नानुज्ञायते सर्वथा विशेषाभावात् । अथ यत्र प्रत्यक्षे नीलं प्रतिभासते निर्वाधात्तन्नीलविषयं यत्र पीतादि तत्तद्विषयमित्यनुगम्यते तर्हि यत्र शारे ज्ञाने वस्तुरूपमकल्पितमाभाति तद्वस्तुरूपविषयं यत्र तु कल्पनारोपितरूपं तत्तद्गोचरमित्युक्तम् । ततः शद्वार्थानां भावाभावोभयधर्माणामभावादिवासनोदितविकल्पपरिनिष्ठितत्वे प्रत्यक्षार्थानामपि तत्स्यात् तेषां बाधकाभावात् । पारमार्थिकत्वं वा तत एव शद्वार्थानामपि तद्भवेदिति न प्रतिपादितविरोधाभावः।
___अत्यन्तपनसे असम्भव हो रहे किन्तु खण्डन करनेके लिये किसीमें आरोपे गये अथवा किसीके द्वारा शंकाको प्राप्त हुए तुच्छ अभाव आदिके वाचक शबोंको अन्यापोह अर्थकी विषयता मानकर सर्व ही सत्य शद्वोंको भी अन्यापोह अर्थक विषयपनका प्रसंग देना उचित नहीं है। क्योंकि प्रायः करके प्रतीतियोंसे विरोध होगा । अन्यथा किसी भी नील पदार्थको जाननेवाले प्रत्यक्षको नीलका विषय करनेवाला होनेपर सभी लाल, पीले आदिको विषय करनेवाले प्रत्यक्षोंको भी नीलको विषय करनेवालपेनका प्रसंग क्यों नहीं माना जावेगा ? सभी प्रकारोंसे कोई अन्तर नहीं है । अब यदि आप यों माने कि जिस प्रत्यक्षमें बाधा रहितपनेसे नील पदार्थ प्रतिभास रहा है, वह नीलको विषय करनेवाला प्रत्यक्ष है और जिसमें पीत, रक्त, आदि पदार्थ बाधारहित होकर प्रतीत हो रहे हैं, वह उन पीत आदिको विषय करनेवाले प्रत्यक्ष है, ऐसा माना जायगा । तब तो जिस शद्वज-य ज्ञानमें नहीं कल्पना किया परमार्थभूत वस्तुस्वरूप प्रकाशित हो रहा है, वह शाद्वज्ञान तो वस्तुभूत पदार्थको विषय करनेवाला माना जाय, किन्तु जिस शादज्ञानमें कल्पनासे आरोप कर किया गयारूप जाना जाता है, वह शाद्वज्ञान उस कल्पित झूठे पदार्थको विषय करनेवाला मान लिया जाय । इस बातको हम पहिले भी कह चुके हैं । प्रमाण और प्रमाणाभास तो सर्वत्र मानने पडते है । तिस कारण शब्दके वाच्यअर्थस्वरूप भाव, अभाव, और उभय धर्मोको या इन तीन धर्मवाले धर्मियोंको यदि अनादिकालकी लगी हुयी भाव, अभाव आदिकी वासनासे उत्पन्न हुए विकल्पज्ञान द्वारा स्थित होना ( मनगढन्त ) माना जायगा तो प्रत्यक्ष ज्ञानके विषयभूत अर्थोको भी वह झूठे विकल्पज्ञान रूपी शिल्पीद्वारा यों ही त्यों ही गढ लिया गयापन हो जाओ ! अर्थात् प्रत्यक्षद्वारा जाने गये पदार्थ भी वस्तुभूत नहीं माने जाय, तिसपर बौद्ध यदि यों कहें कि प्रत्यक्षसे जाने गये उन अर्थोका