Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थकोकवार्तिक
कोई बाधक प्रमाण न होनेके कारण वे जागती हुयी दशाके सुख, नील, आदिक तो वस्तुभूत हैं। ऐसा माननेपर तो बौद्धोंके यहां शब्दके वाध्यअर्थ भी तिस प्रकार बाधक प्रमाण न होनेके कारण वास्तविक हो जाओ ! बौद्धोंको यह भय करना उचित नहीं है कि अभाव भी शवोंका वाच्यअर्थ माना गया है और अभाव तुच्छ पदार्थ अवास्तविक है । अतः सभी शवोंके वाच्यअर्थीको अवास्तविकपना है । देखो ! हम जैन अभावको दूसरे भावस्वरूप मानते हैं । जैसे कि घटका अभाव रीते भूतलस्वरूप है। हां! तुच्छ और निरुपाख्य अभाव कोई पदार्थ नहीं है। " भावान्तरविनिर्मुक्तो भावोऽत्रानुपलम्भवत् "। जैसे गाढ सोते हुए मनुष्यका या मूर्ख जीवका अज्ञान अनुपलम्भ नहीं कहाता है, किन्तु चैतन्य अवस्थामें ठहरे हुए मनुष्यका किसी पदार्थका ज्ञान होना अन्य पदार्थका अनुपलम्भ कहा जाता है । अनुपलम्भ शद्वमें नका अर्थ पर्युदास है, प्रसज्य अर्थ नहीं है। वैसे ही अन्य भावोंसे रहित दूसरा भावपदार्थ ही अभाव पडता है । मीमांसक भी प्रायः ऐसा ही मानते हैं।
ननु तुच्छाभावस्याशद्वार्थत्वे कथं प्रतिषेधो नाम निर्विषयमसंगादिति चेन्न, वस्तुखभावस्याभावस्य विधानादेव तुच्छखभावस्य तस्य प्रतिषेधसिद्धः कचिदनेकान्तविधानात् सर्वथैकान्तप्रतिषेधसिद्धिवत् ।
यहां शंका है कि कार्यता, कारणता, आधारता, आधेयता, विशेष्यता, विशेषणता, आदि सभी धर्मोंसे रहित तुच्छ अभावको यदि शब्दका वाच्यअर्थ न माना जायगा तो भला उसका निषेध भी कैसे होगा ! यों तो निषेधको प्रतियोगीस्वरूपसे रहितपनेका प्रसंग होगा । अर्थात् निषेध तो किसी पदार्थका होना चाहिये । खरविषाण आदि अवस्तुका तो निषेध नहीं होता है। ज्ञानका जैसे षष्ठयन्त या सप्तम्यन्त विषय आवश्यक है, वैसे ही निषेधका भी वस्तुभूत षष्ठयन्त प्रतियोगी होना चाहिये । आचार्य कहते हैं कि यह शंका तो न करना। क्योंकि वस्तुस्वरूप अभावको विधान करनेसे ही तुच्छस्वरूप उस अभावके निषेधकी स्वयं सिद्धि हो जाती है । जैसे कि कहीं अनि, हेतु, विष, आदिमें भावस्वरूप अनेकान्तक्षी विधि होजानेसे सभी प्रकार एकान्तोंके निषेधकी सिद्धि हो जाती है । हम चलाकर सर्वथा एकान्त या तुच्छ अभावको स्थिर करके पुनः उसका निषेध नहीं करते है । यों तो व्याघातदोष होता है। हां ! भावात्मक अनेक धर्मवाले पदार्थ संसारमें प्रसिद्ध हो रहे हैं अथवा वस्तुभूत नास्तित्व धर्मसे युक्त पदार्थ प्रतिभास रहे हैं, इस ही कारण सर्वथा एकान्त और तुच्छ अभाव प्रतीत ही नहीं हो पाते हैं। __तथा तस्य मुख्यो प्रतिषेधो न स्यादिति चेत्र किञ्चिदनिष्टं, न हि सर्वस्य एख्ये. नैव प्रतिषेधेन भवितव्यं गौणेन वेति नियमोऽस्ति यथामतीतस्योपगमात् ।
बौद्धोंकी ओरसे कोई कहता है कि यों तिस प्रकार होनेपर तो उस तुच्छ अभावका मुख्य रूपसे निषेध नहीं हो सकेगा। मुख्य निषेध तो उसे कहते हैं जो कि ठीक उसीका किया जाय । यों तो एक अश्वके होनेपर हाथी, मैंसे, बैल, आदि असंख्य पदार्थोका निषेध हो जाता है, किन्तु