Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
५२१
वह गौण निषेध है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो आक्षेप न करना । क्योंकि हमको कोई अनिष्ट नहीं है । सर्वथा एकान्तोंका या तुच्छ अभावोंका षष्ठयन्त विषय नियत करते हुए मुख्य निषेध न होनेमें हमारी कोई क्षति नहीं है । सबका मुख्य ही निषेध होना चाहिये या गौण ही निषेध होना चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं बंधा हुआ है। जिसका कि आवश्यक पालन किया जाय । हां ! जिनका जिस प्रकार निषेध होना प्रतीत हो रहा है, उसका वैसा मुख्य या गौण निषेध होना स्वीकार कर लिया जाता है। आपके यहां भी तो खर विषाण, वन्ध्यापुत्र आदि असत् पदार्थोका गौणरूपसे निषेध करना माना गया है। इसी प्रकार यहां भी सर्वथा एकान्तोंका या तुच्छ अभावोंका निषेध गौण ही सही।
ननु गौणेऽपि प्रतिषेधे तुच्छाभावस्य शद्वार्थत्वसिद्धिर्गम्यमानस्य शद्वार्थत्वाविरोधात् सर्वथैकान्तवदिति चेन, तस्यागम्यमानत्वात्तद्वत् । यथैव हि वस्तुनोऽनेकांतात्मकत्वविधानात् सर्वथैकान्ताभावो गम्यते न सर्वथैकान्तस्तथा वस्तुरूपस्याभावस्य विधानाचच्छाभावस्याभावो न तु स गम्यमानः।।
पुनः शंकाकारका कथन है कि तुच्छ अभावका गौणरूप निषेध करनेपर भी शब्द द्वारा वाध्यार्थपना सिद्ध हो जाता है क्योंकि शब्दके द्वारा कण्ठोक कहे गये उच्यमान पदार्थके समान शबसे यों ही जान लिये गये गम्यमान पदार्थको भी शब्दका वाच्यार्थपन प्राप्त होनेका कोई विरोध नहीं है। जैसे कि हमने सर्वथा एकान्तोंको शब्दके वाच्यअर्थ माना है। अब श्रीविद्यानन्दखामी कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि वह तुच्छ अभाव शद्वके द्वारा जानने योग्य नहीं है। जैसे कि सर्वथा एकान्त अर्थात् शद्वोंके द्वारा सर्वथा एकान्त और तुच्छ अभाव साक्षात् या परम्परा कैसे भी नहीं जाने जाते हैं। सींगोंसे खाली घोडेके सिरको देखकर एकदम घोडेके सींगोंका अभाव जान लिया जाता है । घोडेके सीगोंके जाननेके लिये अवसर ही नहीं मिल पाता है । जिस ही प्रकार वस्तु के अनेक धर्म स्वरूपपनका विधान करनेसे ही उसी समय सर्वथा एकान्तोंका अभाव जान लिया जाता है, सर्वथा एकान्त नहीं जाने जाते हैं, तिसी प्रकार वस्तुस्वरूप अभावकी विधि होनेसे तुच्छस्वरूप अभावका अभाव एकदम जान लिया जाता है, किन्तु वह तुच्छ अभाव तो कैसे भी नहीं जाना जाता है । प्रमेयत्व धर्म जिसमें रहेगा, वह जाना जायेगा । तुच्छ अभाव तो सर्वथा एकान्तके समान प्रमेयत्व धर्मसे रीता है । भला वह परम्परासे भी कैसे जाना जा सकता है ।
ननु तुच्छाभावस्याभावगतौ तस्य गतिरवश्यंभाविनी प्रतिषेध्यनान्तरीयकत्वात् पतिषेषस्येति चेत्र, व्याघातात् । तुच्छाभावस्याभावश्च कृतश्विद्गम्यते भाववैति को हिजयात् स्वस्थः।
शंका है कि तुच्छ अभावके अभावका ज्ञान करने पर उस तुच्छ अभावका ज्ञान करना तो अवश्यरूपसे होना चाहिये, क्योंकि निषेध करना निषेध करने योग्य प्रतियोगीके साथ अधिनाभाव
6