Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ श्रीकवार्तिके
आदिकों का क्रमसे कहना तो प्रतिपाद्य के प्रश्नोंकी अधीनतासे है। जैसे श्रोताने प्रश्न किये गुरु महाराजने तदनुसार प्रतिवचनोंका क्रम लिख दिया है ।
ननु च संक्षिप्तैः प्रमाणनयैः संक्षेपतोऽधिगमो वक्तव्यो मध्यम प्रस्थानतस्तैरेव मध्यमप्रपञ्चैर्न पुनर्निदेशादिभिस्ततो नेदं सूत्रमारम्भणीयमित्यनुपपत्तिचोदनायामिदमाह ;
यहां दूसरे ढंगसे शंका है कि संक्षेपको प्राप्त हुए प्रमाण और नयों करके संक्षेपसे अधिगम होना कहना चाहिये सो कहा ही जा चुका है। हां ! मध्यम रुचिकी अपेक्षासे भी उन्हीं मध्यम विस्तारवाले प्रमाण नयों करके अधिगम होना कहना चाहिये था । सर्वथा निराले निर्देश आदिकों करके फिर नवीन ढंगका अधिगम बताना तो उचित नहीं है । तिस कारण ग्रन्थकर्ताको इस सूत्रके बनाने का प्रारम्भ नहीं करना चाहिये । इस प्रकार निर्देश आदि सूत्रके असिद्ध हो जानेकी प्रेरणा करनेपर विद्यानन्द स्वामी महाराज इस वार्तिकको कहते हैं ।
निर्देशाद्यैश्च कर्तव्योऽधिगमः कांश्चन प्रति । इत्याह सूत्रमाचार्यः प्रतिपायानुरोधतः ॥ १ ॥
आदिकोंको कोई कोई शिष्य किसी नवीन वस्तुको देखकर उसके नामनिर्देश, स्वामी, कारण, प्रश्न उठाते हुए चले आते हैं। अतः उन किन्हीं शिष्योंके प्रति निर्देश आदिकों करके जीव आदि वस्तुओं का अधिगम कराना चाहिये । इस कारण प्रतिपादन करने योग्य शिष्योंकी अनुकूलताके वशसे श्री उमास्वामी आचार्य इस सूत्र को कहते हैं । सब जीवोंके अनुग्रह करनेमें प्रवर्त्त रहे आचायकी मध्यमरुचिवाले जीवों को समझानेके लिये प्रवृत्ति करना स्वाभाविक धर्म है । उक्त छह प्रश्नोंका उत्तर देनेसे श्रोता वस्तुके अन्तस्तलपर पहुंचकर अधिगम कर लेता है ।
ये हि निर्देश्यमानादिषु स्वभावेषु तत्त्वान्यप्रतिपन्नाः प्रतिपाद्यास्तान् प्रति निर्देशादिभिस्तेषामधिगमः कर्त्तव्यो न केवलं प्रमाणनयैरेवेति सूक्तं निर्देशादिसूत्रं विनेयाशयवशवर्तित्वात्सूत्रकारवचनस्य । विनेयाशयः कुतस्तादृश इति चेत् ततोऽन्यादृशः कुतः तथा विवादादिति । तत एवायमीदृशोऽस्तु न्यायस्य समानत्वात् ।
जो शिष्य निर्देश करने योग्य हो रहे या स्वामिपन आदि स्वभावोंमें तस्वोंको नहीं समझ आदि स्वभावोंका अधिगम
पायें हैं, उनके प्रति निर्देश आदिकों करके उन कथन करने योग्य कराना होगा। पूर्व सूत्रमें कहे गये केवल प्रमाण और नयों करके उनको अधिगम नहीं हो पाता है । इस कारण सूत्रकारने निर्देश स्वामित्व आदि यह सूत्र बहुत अच्छा बनाया है। सूत्र बनानेवाले ऋषियोंके वचन विनीत शिष्योंके अभिप्रायानुकूल वर्तते हैं। यहां कोई यदि यह पूंछे कि विनयधारी शिष्योंका अभिप्राय तैसा ही क्यों हुआ ? ऐसा कहनेपर तो हम भी कह सकते हैं कि उससे
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