Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थवा
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थोडी देर के लिये दुःख मिटानेवाला अचिन्तनीय सामर्थ्य, आदि अनेक स्वभावोंसे तीर्थङ्कर बालककी मुखाकृति इतनी प्रेक्षणीय हो गई है कि “इन्द्र भी रिक्त, मुग्ध पुरुषके समान घण्टों निरखता रहता है। इसी प्रकार एक दोष के साथ दूसरे दोषोंमें भी कई धर्म पैदा हो जाते हैं "। अष्टसहस्त्री में एक स्थलपर लिखा हुआ है कि “ चौरपारदारिकसे अचौरपारदारिक निराला ही है "। असली चोर या डाकू पराई बहन बेटीके हाथ नहीं लगाते हैं, किंतु केवल माता या बहिन कहकर माल या गहना झपट लेते हैं । इसी प्रकार अजघन्य परदारासेवी पुरुष परस्त्रीके माल या गहनेको नहीं चुराता है, प्रत्युत स्वयं देता है । हां ! कोई कोई जघन्य दोनों दोषोंसे लीन रहते हैं। चौथे प्रकार के सज्जन पुरुष दोनों दोषोंसे रहित हैं । जिस प्रकार एक गुणकी आभा दूसरे गुणपर जाती है और एक दोषका प्रभाव अन्य दोषोंपर प्रभाव कर जाता है । उसी प्रकार सांसारिक मनुष्यों में दोषोंके प्रभाव गुणोंपर और गुणोंके प्रभाव दोषोंपर भी आक्रान्त हो जाते हैं। तभी तो -
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46 मरदुव जियदुव जीवो, अयदाचारस्स णिच्चिदा हिंसा । "
जीव जीवो या मरो यत्नाचाररहित प्रवर्तनेवालेको हिंसा जरूर लगेगी। ईया समितिका पालन कर रहे मुनिको कुलिंगजीवकी मृत्यु हो जानेपर भी उस हिंसाको निमित्त लेकर स्वल्प भी बंध नहीं होता है । श्लोकवार्तिकालङ्कारमें “ असदभिधामनृतम् " इस सूत्र के भाष्यमें किसी सत्यको असत्य और किसी असत्यको सत्य घोषित किया है ।
तेन स्वपरसन्तापकारणं यद्वचोंगिनां । यथादृष्टार्थमप्यत्र, तदसत्यं विभाव्यते ॥ मिथ्यार्थमपि हिंसादि, निषेधे वचनं मतं । सत्यं तत्सत्सु साधुत्वादहिंसाव्रतशुद्धिदम् ॥
यों अनेकान्तका चाहे जितना विस्तार बढाया जा सकता है। उक्त विवेचन वस्तुके अनंतानंत धर्मोके प्रबोधपर पहुंचने में उपयोगी समझकर किया गया है ।
आजकल प्रत्यक्षप्रमाण और युक्तियोंसे सिद्ध हो रहे पदार्थोंको नतमस्तक माननेवाले परीक्षकोंके युगमें स्याद्वाद और अनेकान्तकी सिद्धि करना कोई कठिन नहीं है। स्याद्वाद सिद्धांत और अनेकान्त प्रक्रिया किसी न किसी ढंगसे प्रायः सबको मानने पडते हैं । अलं पल्लवितेन । सार्वश्रीद्वादशांगाम्बुनिधिसुमथनौन्नत्यभाङ्मन्धतुल्य- ।
श्रीमत्त्वार्थशास्त्राभिलुठनजनिजानेकरत्नाद्युपशम् । सत्याङ्कस्यात्प्रमाणैवकृतिनयवचः सप्तभङ्गैर्भवेद्वै । जित्वैकान्तप्रवादानधिगमजसुदृग्लब्धये स्याच्छ्रुतान्धिः ॥ सार्वश्रीद्वादशाङ्गाम्बुनिधिसुमथनौन्नत्य भाङ्मन्यतुल्यश्रीमत्वार्य शास्त्राभिलुठनजनिजानेकरत्नाप्युपज्ञम् । सत्याङ्कस्यात्प्रमाणैवकृतिनयवचः सप्तभंगैर्भवेद्रो (नो) जित्वैकान्तप्रवादानधिगमजसुदृग्लब्धये षष्ठसूत्रम् ।।