Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकवार्तिके
प्रमाणव्यवहारस्तु, भूयः संवादमाश्रितः । गंधद्रव्यादिवदभूयो, विसंवादं तदन्यथा ॥ प्रमाणपनेका व्यवहार तो बहुभाग संवादसे सम्बन्ध रखता है । और जिस ज्ञानमें बहुभाग या तीखे अंशों में विसंवाद है उस प्रमाण में अप्रमाणपनका व्यवहार करना चाहिये । जैसे कपूर, केसर, कस्तूरी, आदिमें रूप, रस, आदिके होनेपर भी गन्धकी प्रधानता हो जानेसे उनको गंधद्रव्य कहा जाता है । नीबू, नोंन, मिरच आदिको रसद्रव्य माना जाता है । उसी प्रकार बहुभाग या तीक्ष्णप्रमाणपनके अंश पाये जानेसे समीचीन ज्ञानको प्रमाण कह दिया जाता है ।
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मति आदि ज्ञानोंमें भी संवादके अनुसार जितनी प्रमाणता बांटमें आवे, उतनी संतोषपूर्वक ले लो । अधिक लिये हाथ पसारना अन्याय है । लेखनी ( नेजाकलम ) की ऊपरकी छाल सभी चिकनी, कडी होती है। किंतु अक्षर लिखनेके लिये चाकूसे जितना तिल बरोबर छिला भाग उपयोगी है, वह कारण है। शेष बहुभाग उस लेखनीका सहायक है । सर्पके अगले पच्चीसवें 1 हिस्से में आंख, कान, आदि अत्युपयोगी पांचों इन्द्रियां बनी हुई हैं । शेष चौवीस भाग सर्पका अत्यल्प प्रयोजनको साधनेबाला निठल्ला पुंछल्ला लगा हुआ है । इसके लिये हम क्या करें ? | यदि ज्ञानमें छोटी २ विशेषताओंका प्रतिभास नहीं होता तो हम उसके स्थूलरूपको सच्चा मान भी लेते किन्तु प्रतीक ज्ञानमें झूठे सच्चे अनेक विशेषोंका तदात्मक विकल्प हो चुका है । अतः प्रमाणप और अप्रमाणपनकी परीक्षा करनी पडती है ।
एक ही ज्ञान के प्रमाणपन, अप्रमाणपनका विवेचन बहुत अच्छा शंकासमाधानपूर्वक श्लोकवार्तिकालंकारमें लिखा हुआ है । विज्ञ पुरुष उसका पर्यालोचन करें ।.
निष्कर्ष यह है कि, विरोधीसारिखे दीख रहे अनेक धर्मोको भी वस्तु झेल रही है तो अविरोधी अनन्तानंत धर्मोके धारणकी तो बात ही क्या है ? एक पदार्थ जितने कार्योंको करता है, उतने स्वभाव प्रत्येक न्यारे न्यारे उसमें मानने पडते हैं ।
एक युवतिके मृतशरीरको देखकर साधु, कामुक और कुत्तेका निर्वेद, इन्द्रियलोलुपता और मन ये तीन कल्पनायें भी युवतिशरीर में वस्तुभूत विद्यमान हो रहे तीन स्वभावोंके अनुसार
हुई हैं। ऐसे तीन क्या तीन सौ तीन लाख, तीनों अनन्तों परिमाणको लिये हुए स्वभाव वस्तु विद्यमान हैं । नीलांजनाके नृत्यमें भगवान् आदीश्वरको वैराग्य और शेष राजाओंको रागभाव 1 उत्पन्न कराने की दोनों निमित्त शक्तियां विद्यमान हैं। यों अनेक स्वभावोंके माननेपर ही पदार्थोंमें aata नवीन अर्थ क्रियायें बन सकती हैं। अर्थ क्रियाओंके नहीं होनेसे तो पदार्थ अवस्तु हो जायगा, जो कि नष्ट नहीं है ।
मुखसे जितने लाखों, करोडों प्रकारके शब्द निकलते हैं, कंठ, तालु आदिमें ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत, उदात्त, अनुदात्त आदिको बनानेकी अनेक शक्तियां माननी पडेगी । व्याकरणशास्त्र अनुसार अवर्णके भले ही अठारह भेद हों, किन्तु सङ्गीत शास्त्रानुसार अवर्णके सा, रे, ग, म, प, ध, नी,