Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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करके व्यवस्थित किया जाता है। जो कि प्रमाण नयोंके विषयभूत हैं। अर्थात् अर्थस्वरूप कर्ममें ठहरनेवाला अधिगम तो अर्थके स्वभावभूत ज्ञेय निर्देश आदिकों करके किया जाता है । कथन करने योग्य अर्थके धर्म, स्वामीपनको प्राप्त हुए अर्थके धर्म, साधने योग्य अर्थके धर्म आदि इन धर्मो करके ही जीव आदि पदार्थोका अधिगम होना प्रतीत हो रहा है। " आत्मा निर्देशादिभिः जीवादीनधिगच्छति " आत्मा निर्देश आदिकों करके जीव आदिकोंको जान रहा है। यहां निर्देश आदिक प्रमाण नय ज्ञानस्वरूप हैं तथा " स्वयमेव निर्देशादिभिः अधिगम्यन्ते"। यहां अर्थोके स्वभाव होकर ज्ञेयस्वरूप निर्देश आदिक हैं। यदि यहां कोई प्रश्न करे कि निर्देश आदिक जब कर्मस्वरूप अर्थोके स्वभाव मान लिये गये, तब तो वे कर्म हो गये। अतः सूत्रकारद्वारा उनका करणपनेसे कथन करना कैसे घटित होगा ? जो कर्म हो चुका है । वह उसी समय करण हो नहीं सकता है । इसपर तो हम यह उत्तर देते हैं कि हम क्या करें। तिस प्रकारसे होता हुआ सबको प्रतीत हो रहा है। जैसे कि उष्ण अनिका उष्णपनेसे अधिगम होना बालकों तकको प्रतीत हो रहा है। तैसे ही निर्देश योग्य अर्थका अपने निर्देश स्वभावसे अधिगम होना जाना जा रहा है । एक वस्तुमें उससे अभिन्न अनेक स्वभाव होते हैं । " भज्यते वृक्षशाखाभारेण" अपनी शाखाओंके बोझसे वृक्ष टूटता है । घोडा अपने वेगसे दौडा जा रहा है। यहां कर्मपन और करणपन एक ही पदार्थमें स्थित है। " स्वभावोऽतर्कगोचरः"।
नन्वनेः कर्मणः करणमष्णत्वं भिन्नमेवेति चेत् न, सद्भेदैकान्तस्य निराकरणात् । कथञ्चिद्भेदस्तु समानोऽन्यत्र । न हि निर्देशत्वादयो धर्माः करणतया समभिधीयमाना जीवादेः कर्मणः पर्यायार्थानिमा नेष्यन्ते । द्रव्यात्तु ततस्तेषामभेदेऽपि भेदोपचारात्कर्मकरणनिर्देशघटनेति केचित् ।
यहां नैयायिक शंका करते हैं कि अग्निस्वरूप कर्मसे उष्णपनारूप करण तो सर्वथा भिन्न हो है। गुण और गुणीका भेद माना गया है। अतः वह करण बन सकता है । आचार्य कहते है कि यह तो न कहना। क्योंकि उन अग्नि और उष्णताके एकान्तरूपसे भेदका पहिले खण्डन किया जा चुका है। हां ! कथञ्चित् भेद तो दूसरे स्थलपर भी समान है, अर्थात् जैसा अग्नि और उष्णतामें परिणाम परिणामी भावसे भेद है। वैसा ही निर्देश्य अर्थ और उसके स्वभाव निर्देशमें भी कथञ्चित् भेद है। निर्देश्य कर्म है और उससे कथञ्चित् भिन्न निर्देश करण माना गया है। सूत्रकार द्वारा करणपनसे भले प्रकार कहे गये निर्देशत्व, स्वामित्व आदि धर्म जीव आदिक कर्म स्वरूप धर्मीसे पर्यायार्षिक मयकी अपेक्षा मिन नहीं माने गये हैं । ऐसा नहीं समझना। अर्थात् पर्यायष्टिसे धर्म धर्मीका भेद इष्ट किया है। हां, द्रव्यार्थिक नयसे तो उन जीव आदिकोंसे उन निर्देशत्व आदि धोका अभेद होनेपर भी भेदका उपचार करनेते कर्मरूप और करणरूपसे कथन
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