Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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स्वार्थ लोकवार्तिके
यों अनेकान्तका साम्राज्य सर्वत्रं छा रहा है। संखिया, हरताल आदि अनेक विषोंकी औषधियां बनाई जाती हैं । ज्वर आदि रोगोंकां नाश कर देती हैं ।
वस्तु क्खे हुये अनेकान्त रत्नोंका स्याद्वादकोट द्वारा रक्षण करते हुये जिज्ञासु सैनिकों करके एकान्तदृष्टियोंका निराकरण कर तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है ।
निरन्श परमाणु भी सान्श है । परमाणु आप ही अपना आदि भाग है और स्वयं ही अपना पूरा मध्यभाग है । तथा स्वयं पूरा शरीर ही उसका अन्त है । यों एक परमाणुमें अनन्तानंत 1 परमाणु प्रविष्ट होकर संयुक्त हो रहे हैं । किन्तु परमाणु भी एकान्तरूपसे निरन्श नहीं हैं। चौकोर बरफीके समान छह पहलोंको धारण करनेवाले परमाणुके शक्तिकी अपेक्षा, छः मूर्त अन्श हैं । यद्यपि बरफीके प्रत्यक्षमें आठ कोने दीखते हैं । तथापि वरफी स्थूल है । परमाणु आर्तसूक्ष्म है । बरफीके एक कोनेसे दूसरी बरफीके कोने भले ही मिल जायं, किन्तु अन्य बरफीकी अखंड भीत सकती है । अत: कोनोंको उपमान न समझकर बरफीके पहलोंको परमाणुके अन्शोंका दृष्टान्त मान लेना चाहिये । बरफीकी चौरस भीतें छः हैं । यदि बरफीके सभी ओर अन्य बरफियां रखदी जावें तो मध्यवर्ती बरफीकी एक एक ओरकी भीतोंको छूती हुई छः बरफियां संसर्ग करेंगी । ठीक इसी प्रकार अत्यन्त छोटे परमाणुकी चारों दिशाओंमें चार और ऊपर, नीचे, इस प्रकार छः परमाणुयें न्यारे न्यारे छः अन्शोंमें संबंधित हो जावेंगी। तभी मेरु और सरसोंकी समानताका दोष प्रसङ्ग भी निवृत्त हो सकेगा । अतीव अणीयान् पदार्थ भी निरंश होकर सांश हैं ।
प्रदेशकी अपेक्षा भिन्न २ क्षेत्रों में वर्त रहा आकाश पदार्थ कल्पित सांश है । साथ ही अखण्डद्रव्य हो रहा आकाश निरंश भी है । चौकोर बरफीके समान जैसा परमाणु है, ठीक उसी प्रकार आकाश द्रव्य भी छः पहलवाला पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व, अधः इन छहों ओरसे एकसा चौकोर हो रहा अखण्डद्रव्य है । सबसे छोटे परमाणु और सबसे बडे आकाशकी व्यञ्जनपर्याय सदृश है । इसी बातको श्रीवीरनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्तीने आचारसार ग्रन्थके तृतीयाधिकार में यो लिखा है कि
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अणुश्च पुद्गलोsभेद्यावयवः प्रचयशक्तितः । कायश्च स्कन्धभेदोत्थश्चतुनस्त्वतीन्दियः ॥ व्योमामूर्त्ते स्थितं नित्यं चतुरस्त्रं समं घनम् । भावावगाहहेतुश्चानंतानंतप्रदेशकम् ॥
एक बार मैं गुरुवर्य पं. गोपालदासजके साथ दक्षिण देशकी यात्राको गया था। वहां श्री बाहुबलिस्वामी की अत्यन्त छोटी मूर्तिके दर्शन किये । और साथ ही जैनबदीमें श्रीबाहुबलि स्वामींकी बृहदाकार शान्तरसमय मूर्त्तिका दर्शन कर कृतार्थ हुआ ।
उस समय परमाणुका लघु शरीर और ठीक उसीके समान आकृतिवाले आकाशका महाप'रिमाण दृष्टान्तरूपेण स्मरणपथपर आगया था । लोकमें सर्प नकुलका, सिंह गायका, भेडिया बकरीका विरोध माना जाता है । किन्तु सच पूंछो तो इनमें भी एकान्तरूपसे विरोध नहीं हैं। सर्कसके तमा