Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थं लोकवार्तिक
लीजिये । किसी वृक्षको एक कोस दूरसे देखा जाय छोटा दीखेगा । जितना जितना वृक्षके निकट पहुंचते जायेंगे उतना उतना बडा दीखता जायगा ।
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वृक्षकी ठीक लम्बाई, चौडाई, कहांसे दीखती है, इसका निर्णय करना कठिन है । यों तो इनमें से सभी प्रत्यक्ष अपने द्वारा ठीक ठीक जाननेका दावा बखान रहे हैं । आखिर वृक्षक यथाथ लम्बाई, चौडाई, किसी न किसी प्रत्यक्ष से दीखती जरूर है । अथवा क्या सूर्यविमानके गडबड प्रत्यक्षोंके समान ये प्रत्यक्ष भी होवें ? । वास्तविक इनकी परीक्षा दुःसाध्य है । इसी तरह दूरसे वृक्षका रूप काला दीखता है । निकटसे हरा दीखता है । मध्यस्थानोंसे देखनेपर हरे और काले रंगका मिश्रण तारतम्यरूपसे प्रतीत होरहा है । वृक्षका ठीक रूप किस स्थानसे दीखा है इसका निर्णय कौन करे ? एक शुक्ल वस्त्रको घाममें, छाया में, दीपक के प्रकाशमें, बिजल के प्रकाशमें उजिरियामें देखनेपर अनेक ढङ्गोके शुक्लरूप दीखते हैं, भले ही बिजली आदि निमित्तों से वस्त्रके शुक्ल रूपमें कुछ आक्रान्ति हो गई होय । फिर भी इस बातका निर्णय करना शेष रह जाता है कि वस्त्रका असली वर्ण किस न्यारी न्यारी आंखें भी रूपके देखने में बडी गडबड मचा देतीं हैं ।
प्रकाशमें दीखा था ।
घडी बनानेवाले या चित्र दिखानेवाले पुरुषोंके पास एक प्रकारका कांच होता है । उस कांच के द्वारा दशगुना या हजारगुना लम्बा चौडा पदार्थ देखलिया जाता है । सूक्ष्म कीटोंको देखने - वाले यंत्रसे तो एक बाल भी मोटी रस्सीके समान दीख जाता है। इसी प्रकार चक्षुः इन्द्रियमें प्रतिविम्बित हो रहा पदार्थ भी यथायथं एकलाख गुना प्रतिभास जाता है। इससे चक्षुके अप्राप्य - कारीपनका निराकरण नहीं हो जाता है। हां ! यथार्थ ग्रहणको धक्का अवश्य लग जाता है ।
सैकड़ों दर्पणों में से सम्भवतः कोई एक दर्पण ही शुद्ध होता होगा जो कि प्रतिबिम्ब्य पदार्थक ठीक ठीक प्रतिबिम्ब लेता होय । इसके विपरीत किसी दर्पण में लम्बा, किसीमें चौडा, किसीमें पीला, किसी में लाल, इत्यादि विकृतरूपसे मुख दीखते हैं । इसी तरह बालक, कुमार, युवा, वृद्ध, बीमार, निर्बल, सबल, घी खानेवाला, सूखा खानेवाला, बैल, गृद्ध, बिल्ली, उल्लू, आदि जीवोंकी आखों में भी प्रतिविम्ब पडनेका अवश्य अन्तर होगा। यदि ऐसा न होता तो भिन्न २ नम्बरोंके चश्मे अनेक तादृश मनुष्योंको क्यों अनुकूल पडते हैं ? बताओ ! मोतियाबिन्दु रोगवालेका चश्मा किसी निरोग विद्यार्थीको उपयुक्त नहीं होता है । बात यह है कि पदार्थोंके ठीक ठीक लम्बाई, चौडाई, रंग और . विन्यासका चाहे जिसकी आंखोंसे यथार्थ निर्णय होना कठिन है ।
इधर सभी बालक, वृद्ध, रोगी अपने अपने ज्ञानको ठीक मान बैठे हैं। बडे मोटे अन्तर के देखनेपर तो बाधायें उपस्थित करते हैं । परन्तु छोटे अन्तरोंपर तो किसीका लक्ष्य भी नहीं पहुंच पाता है । यदि हम केवल वृक्ष या शुद्ध वस्त्र अथवा मुखका ही ज्ञान कर लें तो ठीक भी था । किन्तु आंखोंको बुरी आदतें पडी हुई हैं। अंट, संट, सद्भूत, असद्भूत विशेषणोंका अवगाह कर
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