Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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जैसे न्यारे न्यारे नील, पीत, आदि शब्दों करके कहे जाते हैं, वैसे ही अस्ति, नास्ति, आदि गुण भी न्यारे न्यारे शब्दोंके द्वारा कहे जाते हैं । तिस कारण आप जैन लोगोंको सत्त्व, असत्त्व, आदि गुणोंके युगपत् भावसे उनकी विवक्षा करना युक्त नहीं है । जिस विवक्षाके होनेपर कि वस्तु अवक्तव्य सिद्ध हो जाता । अर्थात् वस्तु अवक्तव्य नहीं सिद्ध हो पाती है । क्योंकि सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, आदि गुणोंकी युगपत् कहनेकी विवक्षा होना विरोध होनेके कारण नहीं सिद्ध हो सका है । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार किया गया एकान्तवादियोंका उपद्रव ( ऊधम ) प्रत्युत उन्हींको लागू होगा, हमको नहीं । क्योंकि स्याद्वादियोंके यहां एक वस्तुमें ठहरे रहे परस्पर विरुद्ध ( विरुद्धसदृश ) भी सत्त्व, असत्त्व, आदि अनेक गुणोंमें काल, आदिके द्वारा अभेदवृत्ति होना प्रसिद्ध हो रहा है । प्रमाणज्ञानमें तिस प्रकार ही प्रतिभास रहा है । स्वरूप, पररूप, आदि चतुष्टयकी अपेक्षासे रहते हुए अस्ति, नास्ति, आदिमें कोई विरोध नहीं है । विरोध तो अनुपलंभ होनेसे साध लिया जाता है, जब कि वे एक वस्तुमें ( जगह ) ठहरे हुए प्रसिद्ध प्रमाणोंसे जाने जा रहे हैं तो विरोध कैसा ? हां ! केवल इतना अभिप्रेत है कि एक ही समयमें सत्त्व, असत्त्व, दोनों गुणोंके कथन करनेवाले शद्वका अभाव है। अतः एक वस्तुमें अवाच्यपना एक धर्म माना जाता है। वाच्यपना केवल धर्मीकी सत्ताके ही आधीन नहीं है । अर्थात् जगत्में जो पदार्थ है वह शब्द द्वारा कह दिया जायगा यह नियम नहीं । अनेक पदार्थ होते हुए भी वचनों द्वारा नहीं कहे जा सकते हैं। वस्तुमें सत्त्व और असत्त्व दोनों गुण निश्चय कर विद्यमान हैं तो भी एकमें एक समय सत् इस शब्द्ध करके दोनों नहीं कहे जा सकते हैं। क्योंकि वह सत् शद्ध असत्त्व धर्मके प्रतिपादन करनेमें समर्थ नहीं है । तिस ही प्रकार असत् इस शब्द करके भी वे सत्त्व, असत्त्व, दोनों धर्म एकदम नहीं कहे जा सकते हैं। क्योंकि वह असत् शद्ब सत्त्वधर्मके समझानेमें सामर्थ्य नहीं रखता है।
सांकेतिकमेकपदं तदभिधातुं समर्थमित्यपि न सत्यं, तस्यापि क्रमेणार्थद्वयपत्यायने सामोपपत्तेः । तौ सदिति शत्शानयोः संकेतितसच्छद्ववत् द्वन्द्ववृत्तिपदं तयोः सकृदभिधायकमित्यनेनापास्तं, सदसत्त्वे इत्यादिपदस्य क्रमेण धर्मद्यप्रत्यायनसमर्थत्वात् । कर्मधारयादिवृत्तिपदमपि न तयोरभिधायकं, तत एव प्रधानभावेन धर्मद्वयमत्यायने तस्यासामर्थ्याच्च । वाक्यं तयोरभिधायकमनेनैवापास्तमिति ।
अपनी परिभाषासे संकेत कर बना लिया गया कोई एक नवीन पद उन दोनों सत् और असत् धर्मोको एक समयमें कहनेके लिये समर्थ हो जायगा, इस प्रकार भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि उस सांकेतिकपदकी भी क्रम करके ही दो अर्थोके समझानेमें सामर्थ्य होना बन सकती है। जो व्यक्त अव्यक्त या बहिर्जल्प अन्तर्जल्परूप शद करके प्रतिपाद्य होगा, उसका ज्ञान शब्दप्रवृत्तिके क्रमाधीन होगा । जैसे कि आकाश और पृथ्वी इन दो अर्थोका वाचक रोदसी शद्ध है । सूर्य और चन्द्रमाका वाचक एक पुष्पवन्त शब्द है, किन्तु यहां भी एक सांकेतिक पदकरके दो पदोंका