Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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एक ही समयमें प्रधानपनसे विवक्षित किये गये सत्त्व और असत्त्व धर्मो करके चारों ओरसे घिरी हुयी वस्तु व्यवस्थित हो रही है । वह सम्पूर्ण वाचक शब्दोंसे रहित है । अतः अवक्तव्य है
और वह सभी प्रकारोंसे अवक्तव्य ही हो, यह नहीं समझना। क्योंकि अवक्तव्य शब्द करके ही इसका वाचन हो रहा है। इस प्रकार कोई एक विद्वान् कह रहे हैं । उनको यह पूंछना चाहिये कि अवक्तव्यशद्बका वाच्यअर्थ आपने क्या माना है ? बताओ ! एक समानमें प्रधान हो रहे सत्त्व, असत्त्व, या नित्यत्व अनित्यत्व आदि दोनों धर्मोसे आक्रान्त हो रही वस्तु यदि अवक्तव्य शद्बका वाच्य है, यदि ऐसा कहोगे तो उस वस्तुको सम्पूर्ण वाचकशबोंसे रहितपना कैसे हुआ ? जो कि आपने पूर्वमें कहा था । अब तो अवक्तव्यपद ही उसका वाचकशब्द भले प्रकार विद्यमान है। जैसे एक ही समय दो धर्मोसे आक्रान्त हो रही वस्तुके कहनेमें संकेत किया गया अवक्तव्य यह पद उसका वाचक है, तिस प्रकार अन्य भी शब्द उसके वाचक क्यों न होंगे? इसपर तुम यदि यह कहो कि वे अन्य पद तो युगपत् धर्मद्वयसे घिरी हुयी उस वस्तुका क्रम करके ही ज्ञान करा सकेंगे। यों कहनेपर तो आचार्य कहते हैं कि तब तो तिस ही कारण यानी क्रमसे ही ज्ञान करानेवाला होनेसे अवक्तव्य इस पदको भी उस वस्तुका वाचकपना मत ( नहीं ) होओ ! क्योंकि उस अवक्तव्यशद्बसे भी एक ही समय प्रधान हो रहे सत्त्व असत्त्व, एकत्व अनेकत्व आदि धर्मोसे घिरी हुयी वस्तुकी क्रम करके ही प्रतीति हो सकेगी। जैसे कि दोनों धर्मोके कहनेके लिये संकेत कर लिये गये दूसरे पदोंसे क्रम करके ही वस्तुकी प्रतीति होती है। युगपत् दोनों धर्मोके वाचक नहीं हो सकनेकी अपेक्षा सांकेतिक पद और अवक्तव्यपद इनमें कोई अन्तर नहीं है । दूसरी बात यह है कि अस्तित्व, वस्तुत्व, आदि धर्मोके समान कहने योग्यपनका अभाव भी वस्तुका एक निराला धर्म है । बस अवक्तव्यपद करके उस वक्तव्यत्वाभावरूप ही एक धर्मका ज्ञापन होता है । इस कारण तिस प्रकार युगपत् अनेक धर्मोसे आक्रान्त हो रही वस्तुका ज्ञापन करना किसी भी एक शब्दसे अच्छा नहीं घटित होता है । जिससे कि अवक्तव्यपद करके वह वस्तु प्रकटरूपसे वक्तव्य है । ऐसा एक विद्वान्का कहना युक्तिसंगत हो जाय । अर्थात् उन एक विद्वान्के मतानुसार तो अवक्तव्य भंग सिद्ध नहीं हो सकता है। युगपत् धर्मद्वयोंसे आक्रान्त वस्तुका न किसी अन्यशद्वसे निरूपण होता है और न अवक्तव्यशद्वसे ही प्रतिपादन होता है । अवक्तव्य कहनेसे तो केवल वस्तुका एक वक्तव्यत्वाभाव धर्म कहा गया । पूर्ण वस्तु या धर्मद्वयसे आक्रन्त हो रही वस्तु तो अवक्तव्य कैसे भी नहीं हुयी।
कथमिदानी " अवाच्यैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते" इत्युक्तं घटते ? सकदर्मद्वयाक्रान्तत्वेनेव सत्त्वाचेकैकधर्मसमाक्रान्तत्वेनाप्यवाच्यत्वे वस्तुनो वाच्यत्वाभावधर्मेणाक्रान्तस्यावाच्यपदेनाभिधानं न युज्यते इति व्याख्यानात् ।
___ जब कि आप जैन धर्मद्वयाक्रान्त वस्तुका अवक्तव्यशब्द द्वारा प्रतिपादन होना नहीं मानते हैं तो श्रीसमन्तभद्र स्वामीका यह कहना कैसे घटित होगा कि अवाच्यताका ही यदि एकान्त माना
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