Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
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विवक्षाको प्राप्त हुए अस्तित्व और नास्तित्व दोनों गुणोंको मिलाकर कथन करनेसे वस्तुभूत अर्थ अवक्तव्य है । इस प्रकार यह भी वस्तुके सकल अंशोंको कहनेवाला सकलादेश वाक्य है क्योंकि परस्पर में अवधारण किये गये अपने पृथक् पृथक् अकेले अकेले स्वरूपवाले और गुणवाली वस्तुके विशेषण होकर एक समय में आरोपे गये दो अस्ति नास्ति गुणों करके ही उस पूर्ण वस्तुका कथन करने के लिये प्रकरण प्राप्त हो रहा है, जिस वस्तुके कि अंशोंके विकल्प विवक्षाको प्राप्त नहीं हुए हैं, किन्तु अभेदवृत्ति या अभेदके उपचार करके गुण स्वरूपकी अपेक्षा समस्त वस्तुको एक मान लिया गया है । भावार्थ - विवक्षाको प्राप्त हुए दो अंश और नहीं विवक्षाको प्राप्त हुए अनेक अंश इन सबका पिण्डभूत वस्तु एक है । अतः अवक्तव्य शद्वकरके पूर्ण वस्तु की गयी । यह जै सिद्धान्त के अनुसार अभेद माननेपर ही सकलादेश द्वारा कहा जा सकता है। तथा वह वस्तु या अर्थ तीसरे भंगको कहनेवाले अवक्तव्य शद्ब करके और अन्य छह मंगोंके वाचक छह वचनों करके दूसरे दूसरे पर्यायोंकी विवक्षासे कथन करने योग्य है । अतः पदार्थ कथञ्चित् अवक्तव्य है । इस प्रकार यह सिद्धान्त निर्णीत हो चुका । अर्थात् वस्तु अवक्तव्य होती हुयी भी सात भंगों के वाचक शवों करके वक्तव्य है । हां ! भेददृष्टिसे विकालादेशकी अपेक्षा वक्तव्यत्वाभाव नामका धर्म अवक्तव्य है ।
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एतेन सर्वथा वस्तुसत् स्वलक्षणमक्तव्यमेवेतिमतमपास्तं स्वलक्षणमनिर्देश्यमित्यादिवचनव्यवहारस्य तत्राभावप्रसंगात् । यदि पुनरखलक्षणं शब्देनोच्यते निर्देश्यव्यावृत्त्या चानिर्देश्यशद्धेन विकल्पप्रतिभासिन एवाभिधानात् न तु वस्तुरूपं परामृश्यत इति मतं, तदा कथं वस्तु तथा प्रतिपन्नं स्यात् : तथा व्यवसायादिति चेत् सोऽपि व्यवसायो यदि वस्तुसंस्पर्शी शद्धस्तं स्पृशतु करणवत् । न हि करणजनितं ज्ञानं वस्तु संस्पृशति न पुनः करणमिति युक्तम् । करणमुपचारात्तत्स्पृशतीति चेत् तथा शद्रोऽपीति समानम् ।
इस उक्त कथन करके बौद्धों के इस मतका भी खण्डन कर दिया जा चुका है कि परमार्थ रूपसे वस्तुभूत हो रहा स्वलक्षण पदार्थ तो सभी प्रकारोंसे अवक्तव्य है । वास्तविक सत् पदार्थको तो शद्ब छूता ही नहीं है । हम ( आचार्य ) कहते हैं कि यदि स्वलक्षणको सभी प्रकार से अवक्तव्य माना जायगा तो " स्वलक्षण कथन करने योग्य नहीं है, स्वलक्षण क्षणिक है, विशेषरूप है, " इत्यादि वचनोंके द्वारा व्यवहार होनेका अभाव उस स्वलक्षणमें प्राप्त हो जायगा । गुरु शिष्य उपदेष्टा आदि सब जने चुप होकर बैठ जायेंगे । फिर यदि तुम बौद्धोंका यह मन्तव्य हो कि स्वलक्षण शद्वसे वस्तुभूत स्वलक्षण नहीं कहा जाता है । शद्वसे तो अन्यापोह कहा जाता है, जो कि अवस्तुभूत होकर विकल्पज्ञानमें प्रतिभास रहा है । स्वलक्षण शद्वसे अस्वलक्षण व्यावृत्ति कही जाती है जो कि स्वलक्षणसे भिन्न है । और अनिर्देश्य शद्वसे निर्देश करने योग्यपनकी व्यावृत्ति कही