Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः *
ज्ञानस्वरूप प्रमाण और नयोंसे स्वके लिये अधिगम होता है । तथा वचनस्वरूप या शब्दस्वरूप प्रमाण नयोंकरके दूसरोंके लिए अधिगम होता है । मति आदि पांच ज्ञान हैं । अस्ति आदिक सात भंगोंसे प्रवृत्त रहा सात प्रकारका शब्द है । प्रश्नके वशसे सात भंगों की प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं है । बौद्धोंका माना हुआ शब्दोंकी योजनासे शून्य स्वलक्षण पदार्थ कुछ नहीं है । प्रत्यक्ष प्रमाण सामान्यविशेषात्मक वस्तुको ग्रहण करता है । सदृश परिणामरूप व्यञ्जन पर्यायें ही शद्वोंके द्वारा कही जाती हैं, सूक्ष्म पर्यायें नहीं । किन्तु उनसे अभिन्न द्रव्यका जैसे तैसे प्रतिपादन हो जाता है, संख्यात शद्वों करके कथन करने योग्य अनन्त धर्मोके वचनमार्ग अनन्त सप्तभंगीरूप हो सकते हैं, जैसे सदृश गोशद्व वाणी, पशु, आदि दश अर्थोको कह देता है । वस्तुके परिणामोंका लक्ष्य रखकर नयको जाननेवाला विद्वान् सप्तभंगों की प्रक्रियाका योजन करता है । सात धर्मोमेंसे कोई भी एक धर्म शेष छह धर्मोसे अविनाभाव रखता
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है । स्वरूपके ग्रहण और पररूपके त्यागसे वस्तुपनकी व्यवस्था है । स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे वस्तु है । परकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे नहीं है । वस्तुभूत कल्पित सात धर्म सात विवादोंको पैदा करते हुए सात प्रकारकी जिज्ञासाके अनुसार सात प्रश्नोंके उत्तरस्वरूप सात मंगों का निरूपण करा देते हैं ! न्यून अधिक भंग होनेके लिये सम्भावना नहीं है । सब इन्हीं में ही गर्भित हो जाते हैं। दूसरे धर्मोकी अपेक्षासे यदि प्रश्न उठाये जायगे तो दूसरी सप्तभंगियां यहां हो जावेगी । इस प्रकार एक वस्तू में असंख्य सप्तभंगियां हो जाती हैं । कोई अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव, दोष नहीं आता है | अनिष्ट अर्थकी निवृत्तिके लिये वाक्य में अवधारण करना आवश्यक बतलाया है । अन्यथा कहना न कहना बराबर है। तीन प्रकारके एवकारोंको पुष्टकर निपातोंको वाचक और द्योतक स्वीकार करते हुए शद्वका विधिनिषेधात्मक अर्थ सिद्ध किया है । यह विचार बडा चमत्कारक है । प्रत्येक वाक्यके द्वारा कोई न कोई पदार्थ व्यवच्छेद्य अवश्य होता है । सर्व, ज्ञेय, आदि पदों का भी व्यवच्छेद्य अर्थ है । स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार सर्वव्यवस्था बन जाती है । जैसे कि संयोग सम्बन्ध पर्वत अग्नि है और निष्टत्वसम्बन्धसे अग्निमें पर्वत रहता है । अथवा पत्नीका स्वामी पति है किन्तु पतिकी भी स्वामिनी पत्नी है । यही पतिपत्नी सम्बन्ध है । पति शङ्खका ही स्त्रीलिङ्गमें पत्नी बन जाता है जिस शद्वके साथ एव लगाया जाता है, उसीसे अवधारण अर्थका कथन होकर एवसे धोतित कर दिया जाता है। अजीवकी सत्ता करके भी जीव अस्तिरूप न हो जाय, इसके लिये स्यात्कारका प्रयोग करना आवश्यक है । स्यात् शद्बसे अनेकान्तका द्योतन होता है । स्यात् लगाने पर ही एवकार शोभित होता है । अभेदवृति और अभेद उपचारसे सकलादेशद्वारा संपूर्ण वस्तुका युगपत् निरूपण हो जाता है और भेदकी विवक्षासे त्रिकलादेश द्वारा क्रमसे कथन होता है । काल आदि आठोंसे भेद और अभेद अर्पित किये जाते हैं। यहां स्याद्वादकी प्रक्रिया के उत्पादक बीजभूत पदार्थोंकी सिद्धि की गयी हैं । स्यात् शद्वके द्वारा अनेकान्तके ध्वनित होनेपर भी