Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
जिस स्वरूप करके वस्तु है उससे तो अस्ति है, किन्तु उस स्वरूप करके और उसके प्रतियोगी धर्मकरके घिरी हुयी होकर एक ही समयमें समझनेके लिये जब इष्ट की गयी है, तब अस्त्यवक्तव्यरूप है । इस प्रकार कोई पांचमे भंगकी पुष्टि कर रहे हैं । भी यदि इस प्रकार स्पष्ट कह देवें कि जितने स्वभावों करके एक वस्तुके जितने अस्तित्वरूप भावधर्म हैं और उन धर्मोके प्रतियोगीरूप उतने ही स्वभावों करके जितने नास्तित्वरूप धर्म हैं, उतने एक समय साथ विवक्षित किये गये उन अनेक युगलधर्मो करके उतनी संख्यावाले अनेक अवक्तव्यरूप हो जाते हैं । और तिन अवक्तव्योंसे उतनी संख्यावालीं सप्तभंगियां बन जाती हैं। तब तो युक्ति और आगमसे अविरोध होने के कारण उनका कथन प्रतिष्ठित हो ही जाता है अन्यथा नहीं । भावार्थ - वस्तुको अस्ति या एकत्व, नित्यत्व, आदि धर्मोसे युक्त करते हुए और युग्मधर्मकी साथ विवक्षा करनेपर पांचमा भंग बन जाता है।
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एतेन नास्त्यवक्तव्यं चिन्तितं प्रत्येयं स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यं च वस्त्विति प्रमाणसप्तभंगी सकळविरोध वैधुर्यात् सिद्धा । नयसप्तभंगी तु नयसूत्रे प्रपञ्चतो निरूपयिष्यते ।
इस उपर्युक्त कथनसे नास्त्यवक्तव्य नामके छठवें भंगका विचार कर लिया गया समझ लेना चाहिये । अर्थात् नास्ति होकर युग्म धर्मसे साथ विवक्षित होती हुई वस्तु नास्त्यवक्तव्य धर्मसे कही जाती है । तथा सातवां भंग कथञ्चित् अस्ति, नास्ति, और अवक्तव्यस्वरूप वस्तु है, यह भंग भां वस्तु के अस्तित्व, नास्तित्व, और अवक्तव्य धर्मोकी एक साथ योजना करनेपर बन जाता है । अनेक वादियोंके भिन्न प्रकारके एकान्त हो रहे हैं । अद्वैतवादियोंका सत्तारूप ही एकान्त है और तत्वोपप्लव वादियोंका नास्तित्वरूप एकान्त है । बौद्ध तत्त्वोंको अवक्तव्य मानने का आग्रह कर रहे हैं। वैशेषिक भाव अभावरूप निरपेक्ष अस्ति नास्तिके एकान्तमें मग्न हैं । शंकराचार्य के मतानुयायी आत्माको अस्ति मानकर अवक्तव्य मानते हैं । माध्यमिक पदार्थको नास्ति होकर अवक्तव्य स्वीकार करते हैं | श्वेताम्बर अस्ति, नास्ति, मानकर अवक्तव्य कह रहे हैं, किन्तु स्याद्वादसिद्धान्त के अनुसार परस्परकी अपेक्षा रखते हुए सातों धर्म वस्तुभूत इष्ट किये जाते हैं। इस प्रकार जीव आदि वस्तु ( धर्मी ) में प्रमाण द्वारा निर्दिष्ट की गयी सप्तभंगी संपूर्ण विरोधोंके रहितपनेसे सिद्ध करदी गयी है। और नय सप्तभंगी तो नय प्रतिपादक अन्तके सूत्रमें विस्तारसे निरूपण की जावेगी । स्थूलदृष्टि से विचारा जाय तो शब्द द्वारा नयसप्तभंगी और प्रमाण - सप्तभंगी में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु मंगोंका निरूपण करते समय प्रतिपत्ताका यदि वस्तुके धर्मपर लक्ष्य है तो नय-सप्तभंगी हो जाती है और पूर्ण वस्तुरूप धर्मीपर यदि लक्ष्य स्थित है तो प्रमाण-सप्तभंगी हो जाती है । विशेष कथन आगे करेंगे । ततः परार्थोऽधिगमः प्रमाणनयैर्वच नात्मभिः कर्तव्यः स्वार्थ इव ज्ञानात्मभिः, अन्यथा कात्स्न्येनैकदेशेन च तत्त्वार्थाधिगमानुपपत्तेः ।
तिस कारण अबतक सिद्ध हुआ कि वचनस्वरूप प्रमाण और नयों करके दूसरे श्रोताओंके लिये इप्तिकी जानी चाहिये । जैसे कि ज्ञानस्वरूप प्रमाण और नयों करके स्वयं अपने लिये अधिगम
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