Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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१८१.
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
जाती है । वास्तविकस्वरूपका तो शद्वसे विशिष्टज्ञान नहीं हो पाता है। ऐसा मन्तव्य होनेपर तो हम बौद्धोंसे पूंछते हैं कि तब आप वस्तुको तिस प्रकार अनिर्देश्य, क्षणिक, स्वलक्षण, आदि स्वरूपों करके कैसे समझ सकोगे ? बताओ ! यदि तिस प्रकार क्षणिकपन, अवक्तव्यपन, आदि करके वस्तुका निर्णय हो जानेसे उसकी प्रतिपत्ति होना मानोगे तो वह आपका माना हुआ निर्णय करना भी यदि वास्तविक अर्थका मले प्रकार स्पर्श कररहा है, तब तो शब्द भी इन्द्रियोंके समान उस वस्तुभूत अर्थको छूलेवे ( विषय करलेवे )। भावार्थ-इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष जैसे यथार्थ वस्तुको जान लेता है । वैसे ही शब्दजन्य आगमज्ञान भी वस्तुको जान लेवे । इसपर कोई बौद्ध यदि यों कहे कि इन्द्रियजन्य ज्ञान तो वस्तुको विषय करता है । इन्द्रियां तो वस्तुको विषय नहीं करती हैं । तैसे ही जडशब्द भी वस्तुको नहीं स्पर्शता है, इसपरं हमारा यह कहना है कि इन्द्रियोंसे जन्मा हुआ ज्ञान तो वस्तुको भले प्रकार स्पर्श करे, किन्तु फिर इन्द्रियां वस्तुका स्पर्श नहीं करें, यह कथन युक्तिपूर्ण नहीं है । इन्द्रियोंके विषय करनेपर ही इन्द्रियजन्य ज्ञान वस्तुको छू सकेगा । अन्यथा नाकसे रूप क्यों न देखलिया जाय ? इसपर बौद्ध कहते हैं कि कार्यका कारणमें उपचार करनेसे इन्द्रिय भी उस वस्तुको स्पर्शती है । ऐसा कहनेपर तो हम आपादान करेंगे कि तिस प्रकार शब्द भी वस्तुको विषय कर लेवे । इन्द्रिय और शब्द दोनोंमें आक्षेप और समाधान तुल्य हैं ।
शद्धजनितो व्यवसायोऽपि न वस्तु संस्पृशति इति चेत् कथं ततो वस्तुखरूपं प्रत्येयम् ? भ्रान्तिमात्रादिति चेत् न हि परमार्थतदनिर्देश्यमसाधारणं वा सिद्धयेत् । दर्शनात्तथा सिद्धिरिति चेत् न, तस्यापि तत्रासामर्थ्यात् । न हि प्रत्यक्ष भावस्यानिर्देश्यतां प्रत्येति निर्देशयोग्यस्य साधारणासाधारणरूपस्य वस्तुनस्तेन साक्षात्करणात् ।
___ बौद्ध कहते हैं कि शद्बसे उत्पन्न हुआ निश्चयात्मक ज्ञान भी वस्तुको भले प्रकार नहीं छूता है । आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहनेपर तो हम वही प्रश्न उठायेंगे कि तिन बौद्ध शास्त्रों या बुद्ध वक्ताके शद्बोंसे वस्तुस्वरूपको तुम भला कैसे समझ सकोगे ? बतलाओ ! यदि केवल भ्रान्तिसे ही वस्तुका समझना मानोगे, तब तो परमार्थरूप स्वलक्षण अनिर्देश्य ( अवक्तव्य ) है । अथवा असा. धारण ( विशेष ) है, यह नहीं सिद्ध हो पायेगा। यदि निर्विकल्पक दर्शन ( प्रत्यक्ष ) से तिस प्रकार अनिर्देश्य और असाधारण उस स्खलक्षणकी सिद्धि करोगे, यह तो ठीक नहीं पड़ेगा। क्योंकि उस आपके माने हुए प्रत्यक्षकी भी उन अनिर्देश्य आदिको जाननेमें सामर्थ्य नहीं है । प्रत्यक्षज्ञान इन बातोंका विचार नहीं कर पाता है कि यह वस्तु अवाच्य है, विशेषरूप है, सामान्य नहीं है, एक क्षणमें नष्ट हो जानेवाली है, इत्यादि। किन्तु विचार करना तो श्रुतज्ञानका कार्य है। प्रत्यक्ष ज्ञान तो पदार्थोके अनिर्देश्यपनको नहीं जानता है, यह सभी मानते हैं । हां ! कथन करने योग्य और सामान्य विशेष आत्मक वस्तुका उस प्रत्यक्षसे साक्षात्कार हो जाता है।