Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यकोकवार्तिक .
समयमें कहनेकी विवक्षा प्राप्त होकर रहना भला क्या पदार्थ है ? इसपर जैनोंको विचार चलाना चाहिये । यदि काल, आत्मरूप आदिकसे अभेदवृत्ति हो जाना गुणोंका युगपत्भाव है सो तो ठीक नहीं, क्योंकि परस्परमें विरुद्ध हो रहे अस्ति, नास्ति, नित्यपन, अनित्यपन, आदि गुणोंका एक वस्तुमें एक समय वर्तना नहीं देखा जाता है। जैसे कि सुख दुःख, हास्य शोक, मान विनय, आदि धर्म एक समयमें नहीं पाये जाते हैं । इन गुणोंके वर्तनका काल भिन्न है। दूसरे आत्मस्वरूप करके अभेदवृत्ति होना भी उन गुणोंका युगपत्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि उन विरुद्ध गुणोंका आत्मस्वरूप ही परस्परमें एक दूसरेसे पृथक् है । जैसे कि सुखका आत्मस्वरूप निराकुलता है. । और दुःखका आत्मस्वरूप व्याकुलता है । उसीके समान उन हास्य, शोक, आदिके भी आत्मरूप न्यारे न्यारे हैं । वे एकम एक होकर विद्यमान नहीं रह सकते हैं। तीसरे एक द्रव्यरूप आधारके आधेय होकरके वर्तना भी उन गुणोंका युगपत् भाव नहीं है। क्योंकि शीतस्पर्श और उष्णस्पर्शके समान भिन्न भिन्न आधारवालेपने करके उन धर्मोकी प्रतीति हो रही है । चौथे सम्बन्धका अभेद होना गुणोंका युगपत्भाव है। यह कहना भी युक्तिरीहत है। क्योंकि उन गुणोंका अपना अपना सम्बन्ध भिन्न है । जैसे देवदत्तका छतरी, दण्ड, अंगूठी, कलम, पगडी, मोदक आदिके साथ संबन्ध न्यारा न्यारा है। समवायसम्बन्ध भी एक होकर घटित नहीं हो सका है। जैसे कि भिन्न शब्द, भिन्न ज्ञान, और भिन्न भिन्न कार्योंके हेतु होनेके कारण संयोग सम्बन्ध अनेक हैं । वैसे ही समवाय भी अनेक हैं । अर्थात् जिनदत्तका पुस्तकके साथ संयोग सम्बन्ध न्यारा है और चौकीके साथ पुस्तकका संयोग न्यारा है । तैसे ही आत्माका ज्ञान और राग, द्वेषसे तथा पुद्गलका रूप गुण और उसकी अशुद्ध पर्यायसे समवाय सम्बन्ध भी न्यारा न्यारा है, तथा पांचमें उपकार द्वारा अभेद होना भी उन गुणोंका युगपत् भाव है । यानी सब गुणोंका उपकार एक ही है । सो भी ठीक नहीं पड़ेगा। क्योंकि प्रत्येक गुणकी अपेक्षासे वस्तुमें किये गये उपकार न्यारे न्यारे हैं । जैसे कि कपडे आदिमें नीले रंगद्वारा रंग जाना या पीलेरंगसे रंग जाना अथवा विद्यार्थी विनय, सदाचार, व्युत्पत्ति, बलाढ्यता आदि गुणों करके न्यारे उपकार विद्यमान हैं । जब कि गुणीको हम लोग अंशोंसे रहित निरंश स्वीकार करते हैं। ऐसी दशामें गुणीका एकदेश होना तो नहीं सम्भवता है । जिससे कि छठा गुणी देशका अभेद होना गुणोंका युगपत् भाव बन सके । तथा उनका सांतवा परस्परमें संसर्ग होना भी युगपत्भाव नहीं है। गुणोंमें उस संसर्गका असम्भव है । क्योंकि शुक्ल, कृष्ण, खट्ठा, मीठा, इत्यादिके समान गुण परस्परमें एक दूसरेसे मिले हुए स्वरूप नहीं है। एक दूसरेसे सम्बन्ध रखते हुए मणियोंके समान न्यारे न्यारे होकर वस्तुमें जड रहे हैं । यदि उनका परस्परमें सम्बन्ध होता तो गुणोंके भेद होनेका विरोध हो जाता। सब खिचडीके समान एकमएक होकर मिल जाते जो कि इष्ट नहीं है । और आठवां शब्दका अभेद होना भी गुणोंका युगपत् भाव नहीं है । क्योंकि नील, पीत, आदिक अर्थ