Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यलोकवार्तिक
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धर्मीका अविनाभाव तो परस्परकी अपेक्षासे सिद्ध हो जाता है, किन्तु उसका स्वरूपलाभ परस्परकी अपेक्षासे नहीं सिद्ध होता है । यह तो स्वयं अपने अपने कारणोंसे बन जाता है। जैसे कि कारक हेतुओंके कर्ता, कर्मरूप अंग या ज्ञापक हेतुओंके बोध्य, बोधक अंग परस्परकी अपेक्षा रखनेवाले नहीं हैं । भावार्थ-एकान्त और अनेकान्तका अविनामावरूप करके रहना तो एक दूसरेकी अपेक्षा करता है किन्तु उनकी निप्पत्ति तो स्वकारणोंसे होती है । परस्परापेक्ष नहीं होती है, जैसे कर्तापन कर्मपनकी अपेक्षासे है और कर्मपन कर्ताकी अपेक्षा रखता है। अतः कर्त्तापन और कर्मपन व्यवहार ही परस्परापेक्ष है किन्तु कर्त्ता या कर्मका शरीर तो परस्परापेक्ष नहीं है। वह तो अपने अपने कारणोंसे स्वतः उत्पन्न हो जाता है । ऐसे ही प्रमाण और प्रमेयका स्वरूप तो अपने अपने कारणोंसे स्वतः सिद्ध है। किन्तु उनका ज्ञाप्य ज्ञापक व्यवहार परस्परकी अपेक्षासे है । इस ही प्रकार अस्ति और जीवके धर्म धर्मीपनेका अविनाभाव एक दूसरेकी अपेक्षासे है, किन्तु अस्ति और जीवका स्वरूप अपने अपने कारणोंसे स्वतः सिद्ध है । यही पद्धति एकान्त और अनेकान्तमें लगा लेना।
किं चार्थाभिधानप्रत्ययानां तुल्यनामत्वात्तदन्यतमस्यापहवे सकलव्यवहारविलोपात्तषां भ्रातत्वैकांते कस्यचिदभ्रांतस्य तवस्याप्रतिष्ठितेरवश्यं परमार्थसत्त्वमुररीकर्त्तव्यम् । तथा चाभिधानप्रत्ययात्मना स्यादस्त्येव जीवादिस्तद्विपरीतात्मना तु स एव नास्तीति भंगद्वयं सर्वप्रवादिनां सिद्धमन्यथा स्वेष्टतत्त्वाव्यवस्थितेः। तथा चोक्तम्-'सदेव सर्वे को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान चेन्न व्यवतिष्ठते ' इति ।
___ और भी यह बात है कि अर्थ, शब्द, और ज्ञान ये तीन समान नामवाले हैं। उन तीनोंमें से यदि एकको भी छिपाया जावेगा तो सम्पूर्ण लौकिक और शास्त्रीय व्यवहारोंका लोप हो जायगा। यदि कोई अद्वैतवादी उन तीनोंके भ्रान्तपनका एकान्त स्वीकार करेगा तो ऐसी दशामें किसी भी अभ्रान्त वस्तुभूत तत्त्वकी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है । इस कारण उन तीनोंका वास्तविकरूपसे सद्भाव अवश्य स्वीकार करना चाहिये । भावार्थ-घट कहनेसे घट अर्थ, घट शद्ध और घटज्ञान, ये तीन ही लिये जासकते हैं । अन्य नहीं। तिसी प्रकार अर्थ, शद और ज्ञानस्वरूपसे जीव आदिक कथंचित् हैं ही, किन्तु उनसे विपरीतस्वरूप करके वह जीव आदिक नहीं हैं, यानी जीव ऐसे पदार्थ जीव ऐसे ज्ञान, तथा जीव ऐसे शबसे जीव है। घट अर्थ, घट शद्ध और घटज्ञानसे जीव नहीं है । इस प्रकार संपूर्ण प्रवादियोंके यहां अस्ति, नास्ति, नामके दो भंग सिद्ध हो ही जाते हैं । अन्यथा उन वादियोंके यहां अपने इष्टतत्त्वकी व्यवस्था ही नहीं हो सकेगी। स्वके ग्रहण और परपदार्थके त्यागसे ही वस्तुकी व्यवस्था बन रही है और तिसी प्रकार खामीजींने कहा भी है कि ऐसा कौन लौकिक या परीक्षक वादी है, जो कि सभी चेतन या अचेतन पदार्थोको स्वरूप आदि चतुष्टयसे सत्स्वरूप ही मानना नहीं चाहे और उसके विपरीत पररूप आदि चतुष्टयसे सबको असतस्वरूप ही न चाहे । अर्थात् चाहे एकान्ती हो या स्याद्वादी हो उक्त प्रकारके अस्ति और