Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
नहीं है तो चालिनी न्यायसे अपने अपने नियत कालोंका अभाव हो जानेसे कोई कहीं भी नहीं रह सकता है । शून्यवाद छा जायगा । अनादिसे अनन्तकालतक महाप्रलय हो जायगा ।
तत्र परमस्य वस्तुनोऽनाद्यनन्तः कालोऽपरस्य च जीवादिवस्तुनः सर्वदा विच्छेदाभावात् तत्र तदस्ति न परकालेऽन्यथा कल्पिते क्षणमात्रादौ महान् दोषः स्यात् , जीवविशेषरूपं तु मानुषादिवस्तु स्वायुः प्रमाणस्वकालेऽस्ति न परायुःप्रमाणे पुद्गलविशेषरूपं च पृथिव्यादि तथा परिणामस्थितिनिमित्ते स्वकालेऽस्ति न तद्विपरीते तदा तस्यान्यवस्तु विशेषत्वेनभावात् ।
तहां कालके विचारमें परम सत् वस्तुका अपना अनादि अनन्तकाल है और उसके व्याप्य जीव, पुद्गल, आदि वस्तुओंका भी स्वकाल अनन्तानन्त हैं । क्योंकि ये वस्तुएं अनादिसे अनन्त तक तीनों कालोंमें स्थिर रहनेवाली हैं । सभी कालोंमें इनका विच्छेद ( मध्यमें टूट जाना ) नहीं होता है। तिन पदार्थोंमें कोई भी वस्तु हो वह अपने भूत, भविष्यत्, वर्तमान, त्रिकालवर्ती अनन्तपरिणाम रूप स्वकीय गुणांशोंमें है । परगुणांशरूप कालमें नहीं है । अन्यथा कल्पना किये गये एक क्षण या दो क्षण आदिमें भी यदि द्रव्यरूपसे वस्तुकी स्थिति हो जायगी, तब तो सत्का विनाश और असत्के उत्पादका महान् अक्षम्यदोष उपस्थित होगा । कोई समय तीन लोक तीनों कालोंका भी महाप्रलय हो जायगा। जो कि अनिष्ट है तथा जीव द्रव्यके व्याप्यरूप मनुष्य, देव, आदि वस्तुओंका सकीय व्यवहारकाल अपने अपने आयु प्रमाण हैं। यानी अन्तमुहूर्तसे लेकर तीन पल्यतक या दस हजार वर्षसे प्रारम्भ कर तेंतीस सागर पर्यन्त आदि है । दूसरेकी आयुके परिमाण नहीं है। यानी पुद्गल स्कन्धोंके समान शरीरधारी जीवकी आयु एक, दो, समय या पचासों सागर की नहीं है । एवं पुद्गलके विशेषस्वरूप पृथ्वी, जल, गृह, वस्तु आदि भी तिसी प्रकार अपनी पर्यायकी स्थितिके निमित्त कारण अपने व्यवहार कालमें हैं। उनसे विपरीत न्यून अधिक कालोंमें नहीं हैं । उस समय उसका अन्य वस्तुओंके विशेषपनेसे परिणाम हो रहा है । अतः स्वकालमें रहना और परकालमें न रहना ही वस्तुका गवस्थित हो रहा है। इस प्रकार निश्चय और व्यवहारसे नियत किये गये स्वचतुष्टय और पर चतुष्टयके अस्ति, नास्तिपनको समझ लेना । यों तो मोटेरूपसे एक द्रव्यमें अनन्त द्रव्य समारहे हैं । जिस प्रदेशमें एक द्रव्य है । वहां असंख्य द्रव्य बैठे हुये हैं । जिस समय एक एक द्रव्य है, उसी समय अनन्त द्रव्य भी हैं। ज्ञान, शब्द, आदिकी अपेक्षा भाव भी असंख्य द्रव्योंका एक हो सकता है। फिर भी सूक्ष्म दृष्टिसे विचार कर निश्चयसे ऐसे चतुष्टयको लक्षित करना जिससे कि वद्रव्यमें परद्रव्यमें एक छोटासा अंश भी न मिल सके, तभी स्वपना व्यवस्थित हो सकेगा । अन्यथा नहीं । जैन सिद्धान्त महान् गहन है।