Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ लोकसार्तिके.
करके दो अंशवाले नास्ति अवक्तव्यपनका भान हो रहा है। एवं सातवें वाक्यसे चार स्वरूपों करके तीन अंशवाले अस्तिनास्ति अबक्तव्यपनका समीचीन बोध हो रहा है । अतः सांश शब्दों करके समंश धर्मोका निरूपण हो जाना शब्दकी सामर्थ्यसे बाहिर नहीं है। अर्थात् निरंश शब्दसे निरंश धर्मका और सांश शद्वसे सांश धर्मका ज्ञान हो जाता है। तिन सात धर्मोमें तीन धर्म तो निरंश हैं शेष पिछले चार भंग अंश सहित हैं।
नच धर्मस्य सांशत्वेऽनेकस्वभावत्वे वा धर्मित्वप्रसंगः द्वित्वादिसंख्यायास्तथाभावेऽपि धर्मत्वदर्शनात् । निरंशैकस्वभावा द्वित्वादिसंख्येति चेन्न, द्वे द्रव्ये इति सांशानेकस्वभावता प्रतीतिविरोधात् । संख्येययोर्द्रव्ययोरनेकत्वातत्र तथा प्रतीतिरिति चेत्, कथमन्यत्रानेकत्वे तत्र तथाभावप्रत्ययोऽतिप्रसंगात् । समवायादिति चेत्, स कोऽन्योऽन्यत्र कथञ्चिचादाम्यादिति । संख्येयवत्कथञ्चित्तदभित्रायाः संख्यायाः सांशत्वादनेकस्वभावत्वसिद्धेः। एवं स्वभावस्यानेकत्वे तद्वतो द्रव्यस्य कथञ्चित्तदभिन्नस्यैकत्वादेकांशत्वमवक्तव्यत्वस्य सिद्धमंशस्य चानेकत्वेप्येकधर्मत्वमस्त्यवक्तव्यत्वादेरविरुदं, तथा श्रुतज्ञानेऽवभासमानत्वात् तबाधकाभावाच्च ।
यदि कोई यह प्रसंग देवे कि चौथे आदि धर्मोको यदि अंशसहित अथवा अनेकात्मक माना जायगा तो वे धर्मी हो जायंगे । धर्म न बने रह सकेंगे धर्म या अंशोंसे सहित तो धर्मी होता है। आचार्य कहते हैं कि सो यह प्रसंग स्याद्वादियोंके ऊपर नहीं आता है। देखो । द्वित्व, त्रित्व, यानी दो, तीन आदि संख्याको तिस प्रकार अंशसहित और अनेक स्वभाववाली होते हुए मी धर्मपन देखा जाता है । द्वित्व संख्यामें दो अंश और त्रित्व संख्यामें तीन अंश अवश्य माने जायगे । अन्यथा वह एक एक होकर दो तीनमें कैसे रह सकेगी ? यहांपर कोई वैशेषिक यों कहे कि द्वित्व, त्रित्व, आदिक संख्या तो अंशोंसे रहित होती हुयी एक ही स्वभाववाली है । सिद्धान्ती कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि दो द्रव्य है । इस प्रकार द्वित्व संख्यामें अंश सहितपने और अनेक स्वभावसहितपनेकी प्रतीति हो रही है । तुम्हारे मन्तव्यका इस प्रतीतिसे विरोध हो जायगा । इसपर वैशेषिक यदि यों कहें कि संख्या करने योग्य दो द्रव्योंको अनेकपना होनेके कारण उस संख्यामें भी तिस प्रकार अनेकपनेकी उपचारसे प्रतीति हो जाती है । आधारके धर्म आधेयमें आ जाते हैं । ऐसा कहनेपर तो हम कहेंगे कि दूसरे द्रव्योंमें अनेकपन होनेपर भी वैशेषिक मत अनुसार उससे सर्वथा भिन्न उस संख्यामें भला इस प्रकार अनेकपनका ज्ञान कैसे हो जायगा ! यदि बलात्कारसे यह नियम माना जायगा तो अतिप्रसंग होगा। अर्थात् घट, पट, आदिकोंके अनेकपनेसे आकाशमें या सुदर्शनमेरुमें भी अनेक. पन आजाना चाहिये । यदि समवाय सम्बन्धसे तैसी प्रतीति होनेका नियम माना जायगा तो बताओ! वह समवाय कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्धके अतिरिक्त दूसरा क्या हो सकता है ! जब संख्या