Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थचिन्तामणिः
जाय अथवा जीव कहनेके लिये सामान्य सत्तावाचक अस्ति शब्द कह दिया जाय और सत्ताको कहनेके लिये जीव शद्ब बोल दिया जाय, तथा सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायोंको विषय करनेवाले अस्ति शतके वाच्य सत्तासे जीवको यदि अभिन्न स्वीकार किया जायगा तो जीवको संपूर्ण द्रव्य और पर्यायोंके साथ तदात्मक हो जानेपनेका प्रसंग होगा । यह संकर दोष है । एवं संपूर्ण द्रव्य और पर्या जीवना हो जायगा । यह व्यतिकर है । इस प्रकार संपूर्ण द्रव्य और पर्यायों के युगपत् तदात्मक प्राप्ति और परस्पर में विषयका परिवर्तनरूप संकर व्यतिकर दोनों दोष हो जायेंगे । तथा यदि फिर जैनोंके द्वारा प्रथम पक्षके अनुसार अस्तिके वाच्य अर्थसे जीवशद्वका वाच्य अर्थ भिन्न कल्पित किया जायगा तो अस्ति शद्वके वाच्य अर्थ सद्रूपसे भिन्न होनेके कारण जीवको गर्दभश्रृंगके समान असत्स्वरूप हो जानेका प्रसंग होगा । जो अस्तिसे भिन्न है, वह असत् है । तथा विपर्यय हो जानेका प्रसंग होगा। यानी सत्तावाले कितने ही चेतनपदार्थ जीवरूप न हो सकेंगे । सत् असत् हो जायेंगे और असत् सत् बन बैठेंगे। तीसरी बात यह है कि जीव संपूर्ण पदार्थोंसे अस्तित्वको यदि भिन्न मान लिया जायगा तो अस्तित्वके भी अभाव हो जानेका प्रसंग है । क्योंकि अस्तित्वगुण आश्रयके विना ठहर नहीं सकता है और सर्वथा भिन्न पडे हुएका कोई आश्रय बनना नहीं चाहता है । यदि कोई वैशेषिक यों कहे कि उस भिन्न पडे हुए भी अस्तित्वका जीव आदिकोंमें समवाय सम्बन्ध हो जानेसे यह कोई दोष नहीं होता है । जीवसत्तावान् हो जायगा और भिन्न भी अस्तित्व अपने आधारोंमें ठहर जायगा । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि तुम वैशेषिकोंके यहां सत्ता जातिसे सर्वथा भिन्न होने के कारण समवाय सम्बन्ध भी तो असत्स्वरूप है । सत् और असत्का सम्बन्ध नहीं होता है, तथा सत् और असत् के बीच में रहनेवालेको समवाय सम्बन्धपनेका विरोध है । अस्ति और उससे सहित जीव इन दोनोंके मध्य में रहनेवाले असत् समवायको सम्बन्धपनेका भी विरोध है । समवाय में सत्ताको रखनेके लिये दूसरा समवाय मानना तो युक्त नहीं है । क्योंकि अनवस्थादोषका प्रसंग होगा । अर्थात् सत्ता जाति तो समवाय सम्बन्धसे ही रहेगी और समवायको सद्रूप बनाने के लिये पुनः सत्ताका सम्बन्ध मानना पडेगा और सत्ता भी पुनः समवाय सम्बन्धसे रहेगी । समवाय में सत्ता रही और सत्ता प्रतियोगिता सम्बन्धसे समवाय रहा । तथा वैशेषिकोंने समवाय में दूसरे समवाय सम्बन्ध करके सत्ता रहनेको इष्ट भी नहीं किया है। " सत्तावन्तस्त्रयस्त्वाद्याः, द्रव्यादयः पञ्च समवायिनः " । यदि कोई वैशेषिक यों कहे कि उस समवायमें उस सत्ताका विशेषणता सम्बन्ध है । अतः कोई अनंवस्थादोष नहीं है। ऐसा कहनेपर तो हम पूछेंगे कि वह विशेषणता सम्बन्ध भी यदि सत्तासे भिन्न है, तब तो सत्सरूप नहीं है। इस कारण रासभ-श्रृंगके समान वह कैसे सम्बन्ध हो. सकेगा ? सम्बन्ध दोमें रहनेवाला भाव पदार्थ हो सकता है । यदि दूसरे विशेषणीभाव सम्बन्धसे पहिले विशेषणीभाव सम्बन्धमें सत्ताका रहना मानकर असद्रूपताका अभाव कहोगे, तब तो फिर
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