Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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. तत्वार्थचिन्तामाणः
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पदत्वाद्घटादिवत् सव्यवच्छेद्यत्वाच्च सार्थकं तद्वदिति प्रतियोगिव्यवच्छेदेन स्वार्थप्रतिपादने वाक्यप्रयोगवत् पदप्रयोगेऽपि युक्तमवधारणमन्यथानुक्तसमत्वात् । तत्पयोगस्यानर्थक्यात् ।
ज्ञान कथञ्चित् ज्ञेय है और कथञ्चित् ज्ञान है । अर्थात् किसी अपेक्षासे ज्ञान अवश्य जानने योग्य है और ज्ञान कथांचित् जाननेवाला ज्ञान भी है। तथा घट, पट आदि अज्ञान तो ज्ञेय ही हैं। इस प्रकार स्याद्वादियोंके सिद्धान्तमें प्रसिद्ध हो रहा वह ज्ञान तो ज्ञेयका कथंचित् व्यवच्छेद्य सिद्ध हो ही जाता है । भावार्थ-सर्वथा अज्ञानरूप ज्ञेयका कथञ्चित् ज्ञान और ज्ञेयरूप होरहा ऐसा ज्ञान पदार्थ व्यवच्छेद्य बन गया । स्याद्वादियोंके यहां इस प्रकारके नियम करनेपर भी कोई विरोध नहीं है कि ज्ञान स्व अथवा परकी अपेक्षासे जाननेवाला होकर जिस स्वभावसे ज्ञेय है, उससे ज्ञेय ही है, और जिस स्वरूपसे ज्ञान है, उससे तो ज्ञान ही है । क्योंकि ऐसे समीचीन एकान्तको तिस प्रकार हम स्याद्वादी स्वीकार कर लेते हैं । तिस कारण अनवस्था भी नहीं होती है । यदि ज्ञानके अंशमें ही ज्ञेयपन और ज्ञानपन माना जाता और उस ज्ञानमें पुनः ज्ञेयपन, ज्ञानपन, माना जाता, ऐसा प्रवाह होनेपर तो अनवस्थादोष हो सकता था। किन्तु जब ज्ञानके ज्ञानपन और ज्ञेयपन स्वभावको सम्यग् एकान्तमुद्रासे कथञ्चित् न्यारा मान लिया है तो पीछे और उसके भी पीछे उत्तरोत्तर दूसरे दूसरे ज्ञान ज्ञेय स्वरूपोंकी धारावहिनी कल्पना न होनेके कारण तितनेसे ही किसी ज्ञाताकी आकांक्षा निवृत्त हो जाती है। हां ! जिसको आकांक्षा उत्पन्न हो गयी है, उस आकांक्षासहित पुरुषको तो तिस ज्ञानमें उन दूसरे ज्ञान ज्ञेय स्वरूपोंकी कल्पना करनेमें भी कोई दोष नहीं है । दो चार कोटि चलकर अकांक्षा स्वयं ही शान्त हो जाती है। सम्पूर्णरूपसे अर्थका ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर पुनः सम्पूर्ण अपेक्षाओंका अन्त हो जाता है अथवा केवलज्ञान हो जाने पर ज्ञान ज्ञेय स्वरूपोंके जाननेकी आकांक्षा ही नहीं रहती है । सम्पूर्ण ज्ञान ज्ञेयोंका युगपत् प्रत्यक्ष हो जानेसे सभी जिज्ञासाओंका वहां पूर्णरूपसे अवसान हो जाता है। दूसरी बात यह है कि जिस वादीके सन्मुख सब पदार्थोको ज्ञेय साधा जा रहा है, उसको सम्पूर्ण पदार्थोके अज्ञेयपनकी आशंका थी । अतः दूसरेसे शंका किये गये सम्पूर्ण अज्ञेयोंको व्यवच्छेद्यप्रनका कथन करनेसे ज्ञेयपद अनर्थक नहीं है, यानी व्यवच्छेद्य हो जानेसे सार्थक है । इसी प्रकार सर्व पद अथवा दो तीन आदि ये संख्यावाची पद भी सार्थक हैं । यह भी उक्त कथनसे निरूपण कर दिया गया है। क्योंकि सर्वपदका व्यवच्छेद्य असर्व
और दो संख्याका व्यवच्छेद्य करने योग्य दो रहित आदि पदार्थ विद्यमान हैं। असर्वपद द्वारा कहे जाने योग्य न्यारे न्यारे एक एक समुदायियोंके प्रथक् कर देनेपर उन समुदायियोंसे अभिन्न तदात्मक सर्व शब्द द्वारा कहे जानेवाले समुदायका निषेध हो जानेसे इष्ट पदार्थका अपवाद नहीं सम्भव है। क्योंकि समुदायियोंसे समुदायका कोई अपेक्षा करके भेद माना गया है। भावार्थ-समुदायसे एक एक व्यक्तिको यदि पृथक् कर दिया जायगा तो समुदायका शरीर ही बिगड जायगा। यह न समझ लेना । क्योंकि समुदायसे समुदायीको कथंचित् न्यारा माना गया है । जैसे '